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३९८ । अष्टसहस्री
कारिका ६भाव १ जीवत्व रूप पारिणामिक भाव ये ५ भाव मुक्ति में पाये ही जाते हैं । कहा भी है
"अन्यत्र केवलसम्यक्त्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः” इत्यादि । इस प्रकार संसार एवं मोक्ष की सिद्धि हो गई।
वेदांती तो मुक्त जीव के अनंत सुख संवेदन रूप ज्ञान मानते हैं एवं बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं मानते हैं । इस पर प्रश्न होता है कि मुक्त जीव के इन्द्रियों का अभाव है इसलिये बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है या बाह्य पदार्थ का अभाव कहो तो सुख का भी अभाव हो जावेगा कारण कि आप पुरुषाद्वैतवादियों के यहाँ सुख भी बाह्य पदार्थ के समान घटित नहीं होता है यदि मानों तो पुरुष और सुख से द्वैत हो जावेगा। यदि इन्द्रियों का अभाव कहो तो बिना इन्द्रिय के सुख का वेदन कैसे होगा? यदि अतींद्रिय से मानों तो बाह्य पदार्थों का ज्ञान मानना होगा।
तथैव बौद्ध ने आस्रव रहित चित्तसंतति को उत्पत्ति को ही मोक्ष माना है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान क्षणों में अन्वय पाया जाता है तथा निरन्वय क्षण क्षय को एकांत से स्वीकार करने पर मोक्ष की सिद्धि बाधित ही है।
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