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________________ वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३८६ दिग्राहित्वविशेषणमिति पीतज्ञानमेव स्यान्न तु मेचकज्ञानम् । अथैकया शक्त्यानेकमर्थं तद्गृह्णातीति द्वितीय विकल्पः समाश्रीयते तदापि सर्वार्थग्रहणप्रसङ्गः । पीतग्रहणशक्त्या ह्य कया यथा नीलादिग्रहणं तथातीतानागतवर्तमानाशेषपदार्थग्रहणमपि केन निवार्येत ? 4अथ न पीतग्रहणशक्त्या नीलग्रहणशक्त्या वा पीतनीलाद्यनेकार्थग्राहि मेचकज्ञानमिष्यते । किं तहि ? नीलपीतादिप्रतिनियतानेकार्थग्रहणशक्त्यैकयेति मतं तदा' न कार्यभेदः' कारणशक्तिभेदव्यवस्थाहेतु:10 स्यादित्येकहेतुक विश्वस्य वैश्वरूप्यं प्रसज्येत । तथा 13चाने जैन-तब तो उपर्युक्त प्रश्नों से जो दोष दिये हैं वे ही दोष विद्यमान रहेंगे। पुनः प्रश्नों की अनवस्था ही चली जावेगी, कहीं दूर जाकर भी अवस्थान नहीं होगा। योग --वह ज्ञान एक रूप से ही अनेक शक्तियों से सम्बन्धित होता है। जैन-तब तो 'शक्तियाँ अनेक हैं" यह विशेषण विरुद्ध हो जावेगा। योग-ज्ञान जिस स्वभाव से पीत ग्रहण शक्ति से सम्बन्धित होता है उसी एक ही स्वभाव से नील आदि को ग्रहण करने की शक्ति से सम्बन्धित होता है। जैन-तब तो पीतग्राही विशेषण रूप ही चित्रज्ञान होगा न कि नीलादिग्राही विशेषण रूप । इस प्रकार वह ज्ञान पीतज्ञान ही रहेगा न कि चित्रज्ञान । भावार्थ-जैनों ने योग के प्रति दो विकल्प उठाये थे कि वह चित्रज्ञान अनेक शक्ति से युगपत् अनेक पदार्थों को ग्रहण करता है या एक शक्ति से ? प्रथमपक्ष में वह चित्रज्ञान अनेक शक्ति से सम्बन्धित होता है । पुनः दो विकल्प उठाये हैं कि वह चित्रज्ञान अनेकरूप से अनेक शक्ति से सम्बन्धित होता है या एक रूप से ? यदि अनेक रूप से सम्बन्धित है तो वह ज्ञान अनेक रूप स्वयं क्यों नहीं होगा ? यदि कहें कि एक रूप से सम्बन्धित होता है तो एक रूप से अनेक शक्ति से सम्बन्धित अनेक विशेषण रूप नहीं होगा। तथा च एक पीतज्ञान रूप या एक नीलज्ञान रूप ही रहेगा न कि चित्रज्ञान रूप । अब मूल का दूसरा पक्ष लेवें तो __ यौग-यह चित्रज्ञान एक शक्ति से ही युगपत् अनेक पदार्थों को ग्रहण करता है यह दूसरा पक्ष हमें इष्ट है। जैन-तब तो फिर सम्पूर्ण पदार्थों को ग्रहण करने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा क्योंकि जिस प्रकार एक ज्ञान पीतग्रहण शक्ति से नीलादि पदार्थों को ग्रहण करेगा उसी प्रकार से भत भविष्यत वर्तमान रूप सम्पूर्ण पदार्थो को भी ग्रहण कर लेगा उसका निवारण कौन कर सकेगा? 1 मेचकज्ञानम् । 2 मेचकज्ञानं नीलपीताद्येव केवलं न गृह्णाति किन्तु सर्वार्थग्राहकं स्यात् । 3 सर्वार्थग्रहणप्रसङ्गविदणोति । 4 योगः। 5 योगेन । 6 एवम्भूतया एकया शक्त्या नीलपीताद्यनेकार्थग्राहि मेचकज्ञानमिष्यते इति मतम् । 7 जैन: प्राह । 8 घटपटादिकार्यभेदः। 9 प्रतिभास: । (ब्या० प्र०) 10 कार्यभेदात्कारणशक्तिभेदो न स्यात् । 11 ब्रह्म । (ब्या० प्र०) 12 नानात्वं । (ब्या० प्र०) 13 सति-दि. प्र. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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