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________________ वैशेषिक द्वारा मान्य मोक्ष का खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३८७ विनाशधर्मकत्वादात्मनोनुत्पादा' विनाशधर्मकत्वात्प्रसिद्धम्' इति तदयुक्तं', विरुद्धधर्माधिकरण - त्वेपि सर्वथा भेदासिद्धेर्मे च कज्ञान' तदाकारवत्' । [ चित्रज्ञानमेकरूपमनेकरूपं वेति विचारः ] एकं हि मेचकज्ञानमनेकश्च तदाकारो 'नीलादिप्रतिभासविशेष इत्येकत्वानेकत्वविरुद्धधर्माधिकरणत्वेपि मेचकज्ञानतत्प्रतिभासविशेषयोर्न' भेदोभ्युपगम्यते, 'मेचकज्ञानत्वविरोधात् । यदि पुनर्युगपदनेकार्थग्राहि मेचकज्ञानमेकमेव ' न " तत्रानेकप्रतिभासविशेषसम्भवो यतो विरुद्धधर्माधिकरणत्व" मभेदेपि स्यादिति 2 मतं तदापि तत्किमनेकया शक्तयानेकमर्थं युगपद्गृह्णाति किं वैकया ? यद्यनेकया तदैकमनेकशक्त्यात्मकमिति स एव विरुद्धधर्मा " हैं जैसे घट आदि । उनका विरुद्ध धर्माधिकरणपना सिद्ध ही है क्योंकि उनमें उत्पाद, विनाश धर्म पाया जाता है और आत्मा उत्पाद, विनाश धर्म से रहित है यह बात प्रसिद्ध है । स्याद्वादी- - आपका यह कथन अयुक्त है । विरुद्ध धर्मों का आधार होने पर भी सर्वथा भेद सिद्ध नहीं है जैसे मेचक - चित्रज्ञान और चित्र आकार वर्ण । चित्रज्ञान एक रूप है या अनेक रूप ? इस पर विचार ] चित्रज्ञान एक है और नीलादि प्रतिभास विशेष उसके आकार अनेक हैं। इस प्रकार एकत्व, अनेकत्व रूप विरुद्ध धर्मों का आधार होने पर भी चित्रज्ञान और उसके प्रतिभास विशेष मेचक वर्णों में भेद नहीं माना गया है अन्यथा चित्रज्ञानत्व का विरोध हो जायेगा । योग - युगपत् अनेक पदार्थों को ग्रहण करने वाला चित्रज्ञान एक ही है । उस चित्रज्ञान में अनेक प्रतिभास विशेष सम्भव नहीं हैं जिससे कि अभेद में भी विरुद्ध धर्मों का आधार होवे । जैन य -यदि आप ऐसा कहते हैं तब तो हम आपसे प्रश्न करते हैं कि वह चित्रज्ञान अनेक शक्ति से युगपत् अनेक पदार्थों को ग्रहण करता है या एक शक्ति के द्वारा युगपत् अनेक पदार्थों को ? यदि आप प्रथम पक्ष स्वीकार करते हो तब तो एक चित्रज्ञान अनेक शक्त्यात्मक हो गया, वह एक चित्रज्ञान ही विरुद्ध धर्मों का आधार रूप हो गया अर्थात् ज्ञान स्वयं एक है और शक्तियाँ अनेक हैं यही विरुद्धधर्मपना है । 1 नुत्पादविनाश इति पा. (ब्या० प्र०) 2 स्याद्वादी । 3 आत्मनो बुद्ध्यादीनां च विरुद्धधर्माधिकरणत्वं भवतु तस्मिन् सत्यपि सर्वथा भेदो न सिद्धयति दि. प्र. । 4 यथामेचकज्ञानमे चव ज्ञानाकारयोविरुद्धधर्माधिकरणत्वेऽपि सर्वथा भेदो न सिध्यति । तथा आत्मबुद्ध्यादिविशेषगुणानां विरुद्धधर्माधिकरणत्वेऽपि सर्वथा भेदाभावः । दि.प्र. । 5 मेचकज्ञानतदाकारयोरिव । 6 आदिशब्देन पीतादि प्रतिभास विशेषाश्चत्वारो गृह्यते मेचकस्य पंचवर्णं रत्नस्य ज्ञाने नीलादिप्रतिभास विशेषाणां संभवात्पंचवर्ण भवेद्रत्नं मेचकास्यं । ( व्या०प्र०) 7 ते मेचकवर्णाः । 8 अन्यथा । 9 युगपदनेकार्थ प्रकाश कै क प्रदीपवत् दि. प्र. 10 चित्रज्ञाने दि. प्र. 11 आत्मबुद्ध्यादीनाम् । 12 तव योगस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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