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________________ अष्टसहस्री [ भूतचैतन्ययोर्लक्षणं पृथक् पृथगेव ] स्वसंवेदनमन्तस्तत्त्वस्य लक्षणं भूतासम्भवीति भिन्नलक्षणत्वं इत्यविरुद्धं पश्यामः तयोः सिद्धयत्येव । तच्च सिध्यत्तत्त्वान्तरत्वं साधयति, 'तच्चाऽसजातीयत्वम्' । ' तदप्यु - पादानोपादेयभावाभावं', 'तयोस्त'त्प्रयोजकत्वात् । तदेवं "भूतचैतन्ययोर्नास्त्युपादानोपादेयभावो 2, विभिन्नलक्षणत्वात् । इति व्यापकविरुद्ध व्याप्तोपलब्धि : 16, 17 उपादानोपादेयभावव्यापकस्य सजातीयत्वविशेषस्य विरुद्धेन तत्त्वान्तरभावेन व्याप्ताद्भिन्न ३७२ ] सकती है क्योंकि स्वपर के ज्ञान करने में अज्ञान निवृत्ति रूप हेतु की अन्यथानुपपत्ति है । [ भूत और चैतन्य का लक्षण पृथक्-पृथक् ही है । ] इस प्रकार से स्वसंवेदन अंतस्तत्त्व (चैतन्य) का लक्षण है जो कि पृथ्वी आदि भूतों में असंभवी है | अतः भूतचतुष्टय और चैतन्य का भिन्न २ लक्षण सिद्ध ही होता है । इसमें हमें किसी भी प्रकार का विरोध नहीं दीखता है और वह भिन्न लक्षण सिद्ध होता हुआ दोनों को भिन्न-भिन्न तत्त्व ही सिद्ध करता है । वह भिन्न तत्त्व ही भूत और चैतन्य में असजातीयपने को सिद्ध कर देता है । असजातीयत्व हेतु भी उन दोनों में उपादान - उपादेय भाव के अभाव को सिद्ध करता है अतः उन दोनों भूत चैतन्य में अथवा उपादान- उपादेय भाव में वह सजातीत्व ही प्रयोजक है । इस प्रकार "भूत और चैतन्य में उपादान- उपादेय भाव नहीं है क्योंकि वे विभिन्न लक्षण वाले हैं ।" इसलिये व्यापक से विरुद्ध व्याप्त की उपलब्धि हो रही है अर्थात् उपादान उपादेयभाव व्याप्य हैं, सजातीयपना व्यापक है, उस सजातीय से विरुद्ध जो भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं उससे "विभिन्न लक्षणत्व" हेतु व्याप्त है ऐसे हेतु की उपलब्धि हो रही है अतः विभिन्न लक्षणत्व हेतु व्यापक विरुद्ध व्याप्तोपलब्धि नाम से कहा जाता है । उसी को स्वयं आगे कहते हैं [ कारिका ६ 4 1 चेतनस्य । 2 पृथिव्यादिषु । ( ब्या० प्र० ) 3 भूत चैतन्ययोः । तत् भूतचैतनयो भिन्नलक्षणत्वं सिद्धयन्निः पाद्यमानं तत्त्वांतरत्वं साधयति । तत् तत्त्वांतरत्वं विजातीयत्वं साधयति । तत् विजातीयत्वं उपादानोपादेयाभावं साधयति । तयोर्भूतचेतनयोः तस्योपादानोपादेयत्वाभावस्य साधकत्वात् -- दि. प्र. । 5 तत्त्वान्तरत्वं च भूतचैतन्ययोरसजातीयत्वं साधयति । 6 असजातीयत्वमपि । 7 साधयतीति संबंध: । 8 भूतचैतन्ययोरुपादानोपादेययोर्वा । 9 तत्सजातीयत्वं प्रयोजकं तयोरूपादानोपादेययोस्ते तथोक्ते तयोर्भावस्तस्मात् । ( ब्या० प्र० ) 10 तत् सजातीयत्वं प्रयोजकं ययोरिति बसः । 11 चेतनयोः इति पा. - दि. प्र । भूतचेतनौ पक्षः उपादानोपादेयभावो भवत इति साध्यो धर्मः भिन्नलक्षणत्वात् - दि. प्र. 12 भावोऽतिभिन्न- इति पा. । (ब्या० प्र० ) 13 निवर्तमानं सजातीयत्वं उपादानोपादेयत्वनिवर्तकमिति वचो भिन्नलक्षणत्वं तन्निवर्तयतीत्यनेन विरुद्धयते इत्याशंक्य विरोधं परिहरति । ( ब्या० प्र० ) 14 साध्यस्य व्यापक । व्यापकविरुद्धेन तत्त्वांतर भावेन व्याप्तात् भिन्नलक्षणत्वात् भूतचैतन्ययोरूपादानोपादेयभावाभाव उपलभ्यते - दि. प्र. 1 15 उपादानोपादेयभावस्य व्याप्यस्य व्यापकं यत्सजातीयत्वं ततो विरुद्धं तत्त्वान्तरत्वं तेन व्याप्तं विभिन्नलक्षणत्वं तस्योपलब्धिः । 16 विभित्रलक्षणत्वादित्ययं हेतुर्व्यापकविरुद्धव्याप्तोपलब्धिः कथ्यते । तदेवाग्रेदर्शयति । 17 व्याप्य । ता । ( ब्या० प्र० ) 18 व्याप्ता इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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