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________________ चार्वाक मत-खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३५५ [ मोक्षतत्कारणतत्त्वस्य सिद्धिः ] तत्र भगवतोभिमतं मोक्षतत्त्वं तावन्न प्रमाणेन बाध्यते, प्रत्यक्षस्य तद्बाधकत्वायोगात् । 'नास्ति'कस्यचिन्मोक्षः, । सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकाविषयत्वात् कूर्मरोमादिवदित्यनुमानेन बाध्यते इति चेन्न, मोक्षस्यानुमानादागमाच्च प्रसिद्धप्रामाण्यादस्तित्वव्यवस्थापनात्', क्वचिद्दोषावरणक्षयस्यैवानन्तज्ञानादिस्वरूपलाभफलस्यानुमानागमप्रसिद्ध स्य' मोक्षत्वात्, “बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' इति वचनात् । तत एव नागमेनापि मोक्षतत्त्वं बाध्यते, 13तस्य तत्सद्भावावेदकत्वव्यवस्थितेः । तथा 14मोक्षकारणतत्त्वमपि न प्रमाणेन विरुध्यते प्रत्यक्षतोऽकारणकमोक्षप्रतिपत्तेरभावात्तेन तद्वाधनायोगात् । नानुमानेनापि तद्बाधनं, ततो मोक्षस्या कारणवत्त्वसिद्धेः । 19सकारणको मोक्षः, प्रतिनियत अब स्वमत में अनुमान का अभाव होने पर भी चार्वाक परमत की अपेक्षा से अनुमान को ग्रहण करके मोक्ष तत्त्व का नास्तित्व सिद्ध करता है [ चार्वाक के द्वारा मोक्ष एवं उसके कारण का खण्डन एवं जैन के द्वारा समाधान ] चार्वाक-"किसी को भी मोक्ष नहीं है क्योंकि वह मोक्ष सत्ता को ग्रहण करने वाले पाँचों प्रमाणों का विषय नहीं है, कछुये के रोम के समान" इस प्रकार अनुमान से बाधा आती है । अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान आगम उपमान और अर्थापत्ति ये पाँचों ही प्रमाण सत् रूप वस्तु को ग्रहण करने वाले हैं और यह मोक्ष पाँचों ही प्रमाणों का विषय नहीं है अतः मोक्ष है ही नहीं, ऐसा हमारा पक्ष है। जैन-आपका यह कथन ठीक नहीं है। प्रसिद्ध प्रमाणता वाले अनुमान से एवं आगम से मोक्ष के अस्तित्व की व्यवस्था की जाती है। किसी जीव में अनंत ज्ञानादि स्वरूप की प्राप्ति रूप फल तथा अनुमान एवं आगम से प्रसिद्ध दोष और आवरण का क्षय पाया जाता है उसी का नाम मोक्ष है । कहा 1 मोक्षसंसारतत्कारणेषु चतुर्षु मध्ये। 2 तेषां = मोक्षतत्त्वादीनाम्। 3 तस्य तदविषयत्वात् । (ब्या० प्र०) 4 स्वमतेनुमानस्याभावेपि चार्वाकः परमतापेक्षयानुमानं दर्शयति । 5 नरस्य । (ब्या० प्र०) 6 प्रसिद्धप्रामाण्यादित्येतदुत्तरत्र सर्वत्र यथावसरमागमशब्देन सह संबंधनीयं । (ब्या० प्र०) 7 अग्रे । 8 आत्मनि । (ब्या०प्र०) 9 दोषावरणयोर्हानिरित्याधुक्तानुमानादिना। 10 एवं मोक्षे सदुपलंभकानुमानागमप्रमाणद्वयं संभवापादनेन परोक्तं सदुपलंभकप्रमाणपचकनिवृत्तिरूपं साधनमसिद्धमिति प्रतिपादितं बोद्धव्यं । दि. प्र. 11 एवं मोक्षस्य यूक्त्यविरोध प्रतिपाद्य शास्त्रा विरोधं प्रतिपादयति तत एवेति । 12 प्रसिद्धप्रामाण्येन । (ब्या० प्र०) 13 आगमस्य। 14 सम्यग्दर्शनादि । 15 स्वरूपं । (ब्या० प्र०) 16 प्रत्यक्षेण। 17 अनुमानात् । 18 कारणतत्त्वसिद्धः इति पा. (ब्या० प्र०) 19 सम्यग्दर्शनादिकारणकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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