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________________ ३४८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ५ [ मीमांसको यया प्रश्नोत्तरमालिकया सर्वज्ञाभावं करोति जैनाचार्या अति तैः प्रश्न रेव तस्याभीष्ट शब्दान् दूषयंति ] तद्वच्छब्दनित्यत्वसाधनेपि समानमेतद्विकल्पजालम् । तथा हि । अयं शब्दानां नित्यत्वं साधयन्' सर्वगतानां साधयेदसर्वगतानां वा सामान्यात्मनां वा ? वर्णानां नित्यत्वमकृतकत्वादिना' सर्वगतानां यदि साधयति 'स्यादप्रसिद्ध विशेषणः पक्ष: 'इतरथानिष्टानुषंगः । कीदृक् पुनः सामान्यं नाम 'यदुभयदोषप्रसंगपरिहाराय कल्प्येत ? सर्वगतत्वसाधनेपि 1°समानम् * । तद्धि वर्णानाममूर्तानां साधयेन्मूर्तानां तदुभयसामान्यात्मनां वा ? यद्यमूर्तानां 12सर्वगतत्वं साधयेत्तदा प्रसिद्धविशेषणता पक्षस्य । अथ मूर्तानामनिष्टानुषङ्गः14 । कीदृक् पुनः सामान्यं नाम यदुभयदोषप्रसङ्गपरिहाराय कल्प्येत ? सर्वगतेतरसामान्यात्मन इव मूर्त्ततर इसी प्रकार से आपके मतानुसार शब्द को नित्य सिद्ध करने में भी ये सभी विकल्प समान ही हैं । तथाहि-आप शब्दों को नित्य सिद्ध करते हुये सर्वगत शब्दों को नित्य सिद्ध करते हो या असर्वगत शब्दों को अथवा सामान्य शब्दों को? अकृतकत्व आदि हेतु के द्वारा वर्णों को नित्य सिद्ध करते हुये यदि सर्वगत शब्दों को नित्य सिद्ध करते हो तब तो पक्ष अप्रसिद्ध विशेषण वाला हो जावेगा और यदि असर्वगत शब्दों को नित्य सिद्ध करते हो तब तो अनिष्ट का प्रसंग आ जावेगा। पुनः इन दोनों से रहित सामान्य किस प्रकार का है कि जिसको इन दोनों में दिये गये दोषों का परिहार करने के लिये आप कल्पित कर सकें अर्थात् नहीं कर सकते हैं. एवं सर्वगतत्व को सिद्ध करने में भी ये ही दोष समान रूप से आ जाते है।* उस सर्वगतत्व को अमूर्तिक वर्गों में सिद्ध करते हो या मूर्तिक में अथवा सामान्यात्मक में ? ___ यदि आप कहें "अमूर्तिक शब्द सर्वगत हैं क्योंकि वे अकृतक हैं तब तो पक्ष अप्रसिद्धविशेषण वाला है। यदि मूर्तिक शब्दों को सर्वगत सिद्ध करें तब तो आपके लिये अनिष्ट है। आप मीमांसक शब्दों को अमूर्त ही मानते हो। पुनः सामान्य किस प्रकार का है कि जिसको दोनों ही दोषों के प्रसंग को दूर करने के लिये आप कल्पित कर सकते हैं ? सर्वगतेतर सामान्यात्मा के समान मूर्तेतर 1 मीमांसकाभीष्टे शब्दनित्यत्वे एतद्विकल्पजालं समानं सूक्ष्मादिसाक्षात्करणस्य प्रतिषेधने संशये चापीति । अयं मीमांसको वक्ष्यमाणरीत्यानुमानद्वयं करोति यत्तन्न सम्यगित्यर्थः। 2 मीमांसकः। 3 अकृतकत्वात् अनुत्पत्तिमस्वादित्यादि हेतुना । (ब्या० प्र०) 4 अप्रसिद्धं सर्वगतत्वविशेषणं यस्य सः। 5 नित्यसर्वगतशब्दस्य क्वचिदप्रसिद्धेः अथवा एकांतवाद्यभिमतसर्वथा सर्वगतत्वस्य स्याद्वादिनां क्वचिदप्यप्रसिद्वेः । दि. प्र. 6 शब्दः। 7 असर्वगतानां नित्यत्वं साधयति चेत । 8 सामान्यात्मनां वा । (ब्या०प्र०) 9 अनिष्टानुषङ्गत्वरूपोऽप्रसिद्धविशेषणत्वरूपश्चेत्युभयदोषी। 10 एकान्तवाद्यभिमतसर्वथासर्वगतत्वस्य स्याद्वादिनां क्वचिदप्यप्रसिद्धः। 11 सर्वगतत्वम् । 12 अमूर्तः शब्दः सर्वगतः, अकृतकत्वादिति । 13 अमूर्तशब्दाः सर्वगताः सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् अथवा एकांतवाद्यभिमतसर्वथामर्तत्वस्य स्याद्वादिनां क्वचिदप्यप्रसिद्धः। दि. प्र.। 14 मीमांसकमते शब्दानाममूर्तत्वात् । 15 पक्षदोषोनिष्टानुषङ्गश्चेति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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