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________________ सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ २७५ त्पत्तैर्विकल्पज्ञानोत्पत्तेर्वा' सर्वत्र तदनुपपत्तौ विधिप्रतिषेधविचाराधटनात् । [ यदि आत्मा ज्ञानस्वभावोऽस्ति तहि संसारावस्थायामज्ञानादि भावो कथं दृश्यते ] कथमेवं कस्यचित्क्वचिदज्ञानं स्यादिति चेदुच्यते । चेतनस्य 'सतः सम्बन्ध्यन्तरं 'मोहोदयकारणकं मदिरादिवत् । तत्कुतः सिद्धम् ! "विवादाध्यासितो जीवस्य मोहोदयः12 सम्बन्ध्यन्तरकारणको मोहोदयत्वान्मदिराकारणकमोहोदयवदित्यनुमानात् । यत्तत्सम्बन्ध्यन्तरं तदात्मनो ज्ञानावरणादि कर्मेति । तदभावे साकल्येन विरतव्यामोहः सर्वमतोतानागतवर्तमानं पश्यति प्रत्यासत्तिविप्रकर्षयोरकिञ्चित्करत्वात् । कथं पुनर्ज्ञानावरणादिसम्बन्ध्यन्तरस्याभावे साकल्येन विरतव्यामोहः स्याद्यतः सर्वमतीतानागतवर्तमानानन्तार्थ एवं समवाय से उसका संबन्ध मानते हैं पुनः आप मीमांसक भी वैसे ही हो जाओगे । इसलिये किसी भी भूत, भविष्यत् आदि विषय में पुरुष-आत्मा अज्ञ स्वभाव वाली नहीं है क्योंकि सभी विषय में वेद से ज्ञान उत्पन्न होने से अथवा विकल्प-व्याप्तिज्ञान से ज्ञान उत्पन्न होने से व्याप्ति ज्ञान की उत्पत्ति न होने पर विधि प्रतिषेध विचार ही घटित नहीं हो सकेगा। __मीमांसक-इस प्रकार से तो किसी भी मनुष्य को कहीं पर किसी भी विषय में अज्ञान कैसे हो सकेगा ? अर्थात् इस प्रकार से आत्मा को ज्ञान स्वभाव मान लेने पर तो सभी संसारी प्राणी पूर्णज्ञानी ही दिखने चाहियें पुनः अज्ञानी क्यों दीख रहे हैं ? [ यदि आत्मा ज्ञान स्वभाव वाली है तब संसारावस्था में उसके अज्ञानादि भाव कैसे दिखते हैं ? ] जैन-हम इसका स्पष्टीकरण करते हैं । सत् रूप चेतन के सम्बंध्यंतर (संबंधी ज्ञानावरणादि के मध्य में अन्यतम-ज्ञानावरण कर्म) मोह के उदय के निमित्त से होता है, मदिरा आदि के समान । अर्थात् संसार में जीव के साथ ज्ञानावरण कर्म और मोहनीय कर्म विद्यमान है अतएव मदिरा को पीकर उन्मत्त हुये के सदृश इस जीव का ज्ञान अल्प और विपरीत हो रहा है। मीमांसक-वह ज्ञानावरण कर्म कैसे सिद्ध है ? जैन-"विवाद की कोटि में आया हुआ जीव का मोहोदय रूप अज्ञानादि भाव ज्ञानावरण के हेतु से हुआ है क्योंकि वह मोहनीय कर्म का उदय है जैसे मदिरा के कारण से होने वाली मोहनीय कर्म के उदयरूप मोहित अवस्था विशेष ।" इस अनुमान से वह ज्ञानावरण कर्म सिद्ध है और जो वह संबंध्यंतर है वह आत्मा का ज्ञानावरणादि कर्म ही है ऐसा समझना चाहिये । 1 विकल्पज्ञानं यत्सत्तत्सर्वमनेकान्तात्मकमिति व्याप्तिज्ञानम् । 2 व्याप्तिज्ञानानुपपत्तौ। 3 यावान् कश्चिद्ध्मः स सर्वोऽप्यग्निजन्माऽनग्निजन्मा वा न भवतीत्यत्र प्रमाणविषये। (ब्या० प्र०) 4 मीमांसकशङ्का। 5 नुः । (ब्या० प्र०) 6 जनः। 7 विद्यमानस्य । (ब्या० प्र०) 8 सम्बन्धिनां ज्ञानावरणादीनां मध्ये अन्तरमन्यतमं = ज्ञानावरणमित्यर्थः । 9 ता। (ब्या० प्र०) 10 मीमांसकः पृच्छति । तद् ज्ञानावरणं कर्म कुतः सिध्द्यति। 11 इति चेदाहुराचार्या: विवादेति। 12 अज्ञानाद्युदयः। 13 प्रसिद्धं । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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