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________________ २१२ ] मष्टसहस्री - [ कारिका ३प्रमाणपरीक्षणम् ? 'लोकवृत्तानुवादार्थमिति चेत्तत्तर्हि' लोकवृत्तं 'कुतो निर्विवादं प्रसिद्धं यस्यानुवादार्थं प्रमाणशास्त्रप्रणयनम् ? न तावत्स्वत एव, 'प्रमाणतोर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत्प्रमाणमिति परतः प्रामाण्यानुवादविरोधात् । "स्वतः प्रसिद्धं हि प्रमाणप्रमेयरूपं लोकवृत्तं तथैवानुवदितुं युक्तं नान्यथा, अतिप्रसङ्गात् । यथानूद्यतेस्माभिस्तथैव लोकवृत्तं प्रसिद्धं "स्वत इति चेन्न, स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमित्य न्यर्लोकवृत्तस्यानुवादात् 'तथैव प्रसिद्धिप्रसङ्गात् । 20स मिथ्यानुवाद इति चेत् तवापि मिथ्यानुवादः कुतो न भवेत् ? तथा लोकवृत्तस्य प्रसिद्धत्वादिति चेत् परोप्येवं ब्रूयात् । तथैव सभी ज्ञान प्रवृत्ति करा देते हैं। __ नैयायिक-लोक की प्रवृत्ति को सार्थक करने के लिये ही प्रमाण की परीक्षा है। मतलब प्रवृत्ति तो सच्चे और झूठे-संशयादि सभी ज्ञानों से होती रहती है फिर भी लोक व्यवहार के लिये प्रमाण की परीक्षा की जाती है। शून्यवादी-तब तो प्रमाण प्रमेय रूप लोक व्यवहार भी किस प्रकार से निर्विवाद सिद्ध हैं जिसका अनुवाद-जिसको सार्थक करने के लिये प्रमाण शास्त्र की रचना की जावे। यदि आप कहें कि स्वतः है तो यह कथन भी आप कह नहीं सकते, क्योंकि प्रमाण से अर्थ का ज्ञान होने पर प्रवृत्ति की सामर्थ्य से अर्थवान् प्रमाण है इस प्रकार सिद्ध हो जाने से तो आपके सिद्धान्तानुसार ज्ञान में पर से प्रमाणता का मानना विरुद्ध हो जावेगा, क्योंकि स्वरूप से स्वतः ही प्रसिद्ध प्रमाण और प्रमेय के स्वरूप लोक व्यवहार को उसी प्रकार से आपके प्रमाण शास्त्र में कहना युक्त है अन्यथा पर से प्रमाणता कहना युक्त नहीं होगा, क्योंकि अति प्रसंग आ जाता है। नैयायिक—जिस प्रकार से (पर से प्रमाणता प्रकार से) हम लोग कहते हैं उसी प्रकार से ही लोक व्यवहार प्रसिद्ध है स्वतः नहीं है। शून्यवादी-ऐसा नहीं कहना अन्यथा स्वतः ही सभी प्रमाणों में प्रमाणता आती है। इस प्रकार से अन्य मीमांसक जनों ने जो लोक व्यवहार स्वीकार किया है उसी प्रकार से उसकी भी सिद्धि 1 नैयायिकः । 2 सार्थकम् । 3 तत्त्वोपप्लववादी। 4 प्रमाणप्रमेयरूपो व्यवहारो लोकवृत्तम् । 5 स्वतो वा परतो वा। 6 स्वरूपतः। 7 प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणमितीदं नैयायिकप्रसिद्धं परत: प्रामाण्यापादकं वचनं । (ब्या० प्र०) 8 सत्यां। (ब्या० प्र०) 9 निश्चितप्रामाण्यं । (ब्या० प्र०) 10 नैयायिकस्य । (ब्या० प्र०) 11 तत्त्वोपप्लववादी। 12 परतः प्रामाण्यानुवादविरोधं विवणोति तत्वोपप्लववादी। 13 भवदीये प्रमाणशास्त्र। 14 परतः प्रकारेण । 15 नैयायिकः। 16 परतः प्रकारेण । 17 "नस्वतः" इति भाति । 18 मीमांसकैः। 19 सर्वप्रमाणानां स्वतः प्रामाण्यमिति प्रसिद्धिप्रसङ्गात् । 20 स्वतोनूवादः। 21 नैयायिकस्य । 22 नैयायिकः । परत: प्रामाण्यप्रकारेण । 23 मीमांसकः। 24 परपरिकल्पितप्रकारेण । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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