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________________ १६६ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ "विचारोत्तरकालं प्रमाणादितत्त्वव्यवस्थितिः । विचारस्तु 'यथाकथञ्चित्क्रियमाणो 'नोपालम्भार्हः-सर्वथा वचनाभावप्रसङ्गात्' इति । “एवं तर्हि तत्त्वोपप्लववादिनामपि विचारादुत्तरकालं तत्त्वोपप्लवव्यवस्था तथैवास्तु सर्वथा विशेषाभावात् ।। [ तत्वोपप्लववादी आस्तिक्यवादिनां प्रमाणतत्त्वं दूषयति ] एवं च तत्र प्रमाणतत्त्वमेव तावद्विचार्यते । —कथं प्रमाणस्य प्रामाण्यम् ? किमदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन, बाधारहितत्त्वेन', प्रवृत्तिसामर्थ्येनान्यथा' वा ? [ प्रथमस्य निर्दोषकारणजन्यत्व हेतोनिराकरणं ] 12यद्यदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन तदा सैव कारकाणामदुष्टता कुतोवसीयते ? न यदि आप जैन ऐसा कहें कि "विचार के अनन्तर-उत्तरकाल में प्रमाणादि तत्त्व की व्यवस्था है और यथा कथंचित् प्रमाण से अथवा प्रमाण के बिना हम लोगों के द्वारा स्वीकृत तत्त्व व्यवस्था उलाहना के योग्य नहीं है। अन्यथा सर्वथा वचनों के अभाव का ही प्रसंग आ जावेगा।" ऐसा कहने पर तो हम तत्त्वोपप्लवादी जनों के यहाँ भी विचार से उत्तरकाल में तत्त्वोपप्लव व्यवस्था उसी प्रकार से हो जावे सर्वथा दोनों में कोई अंतर नहीं है। अर्थात् जब हम विचार करते हैं तब प्रमाणादि तत्त्व हमें दिखाई देने लगते हैं ऐसा जैनादिकों की तरफ स्वयं तत्त्वोपप्लववादी ने समाधान किया है और पुनः उसमें दोषारोपण करने लगा कि इस प्रकार से तो हमारे यहाँ भी विचार करने के अनन्तर तत्त्वों का अभाव दिख रहा है उसे ही मान लीजिये क्या बाधा है ? [ अब तत्त्वोपप्लववादी आस्तिक्य वादियों के प्रमाण तत्त्व को दूषित करने की चेष्टा करता है ] तत्त्वोपप्लववादी-इस प्रकार से अब आपके प्रमाण तत्त्व का विचार किया जाता है। हम आप जैन लोगों से प्रश्न करते हैं कि प्रमाण की प्रमाणता कैसे सिद्ध है ? अदुष्टकारक संदोह के द्वारा उत्पन्न होने से, बाधा रहित होने से, प्रवृत्ति की सामर्थ्य से अन्यथा और किसी प्रकार से ? [ निर्दोष कारणजन्यत्व हेतु का खण्डन ] यदि निर्दोष चक्षु आदि की निर्मलता आदि कारक समूह के द्वारा प्रमाण में प्रमाणता उत्पन्न होती है, ऐसा आप कहो तब तो आपने उन कारकों की निर्दोषता कैसे जानी है, प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से तो आप कह नहीं सकते क्योंकि नेत्रों की निर्मलतादि ज्ञान के कारण अतीन्द्रिय हैं। 1 प्रमाणेन प्रमाणमन्तरेण वा। 2 जनादिकृतः। 3 अन्यथा। 4 तत्त्वोपप्लववादी। 5 च प्रमाणतत्त्वं इति पा० । (ब्या० प्र०) 6न प्रमेयतत्त्वं । (ब्या० प्र०) 7 प्रमेयतत्त्वं च तिष्ठतु। 8 अदोषः चक्षुरादिनर्मल्यम् । 9 एतत्पर्यन्तं विकल्पद्वयमिदं मीमांसकापेक्षया। 10 अयं तृतीयविकल्पो नैयायिकमतापेक्षया। 11 अन्यथा-अविसंवादकत्वेनेत्त्ययं चतुर्थो विकल्पः सौगतमतापेक्षया। 12 तत्त्वोपप्लववादिमतमालम्ब्य जैनः प्राह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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