SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ १५५ प्रकाशित इति प्रतीति:--सर्वेण वाक्येन क्रियाया एव कर्मादिविशेषणविशिष्टायाः प्रकाशनात् । देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेनेत्यादिवत् । सेवाभ्याजनादिव्यवच्छिन्ना' क्रिया भावना अभ्याज अभ्याजनं कुर्विति प्रतीतिरिति चेन्न-तस्याः पुरुषस्थत्वेन सम्प्रत्ययाच्छब्दात्म भावनारूपत्वायोगात् । तथा च कथमिदमवतिष्ठते-“शब्दात्मभावनामाहुरन्यामेव लिङादय” इति । [ अत्रपर्यतं शब्दभावनां निराकृत्य इदानीमर्थभावनामपाकुर्वति जैनाचार्याः ] यदप्युक्तम्---अर्थभावना पुरुषव्यापारलक्षणा वाक्यार्थ इति तदप्ययुक्तम्-नियो शंका-तो शब्द क्या प्रतिपादित करता है ? जैन-जाति आदि से विशिष्ट अर्थ “यजेत" इत्यादि क्रिया नाम से इस वाक्य के द्वारा प्रकाशित किया गया है ऐसा अनुभव आता है क्योंकि सभी वाक्य कर्मादि विशिष्ट से विशेषण क्रिया को ही प्रकाशित करते हैं । जैसे "हे देवदत्त ! इस श्वेत गाय को डडे के द्वारा भगावो" इत्यादि वाक्य जाति, गुण, द्रव्य से विशिष्ट ही अर्थ का प्रतिपादन करते हैं तथैव । भाट्ट-वही अभ्याजन आदि से अवच्छिन्न क्रिया ही तो भावना है क्योंकि "अभ्याज, अभ्याजनं कुरु"-भगाओ, भगाने की क्रिया करो इस प्रकार से प्रतीति आ रही है । जैन-नहीं। वह प्रतीति तो पुरुष में स्थित रूप से जानी जाती है । शब्दभावना और अर्थभावना रूप से नहीं जानी जाती है। और उस प्रकार से यह बात भी कैसे व्यवस्थित होगी कि "लिडादि लकार शब्दभावना और आत्मभावना को अर्थभावना से भिन्न ही कहते हैं" अर्थात् यह कथन ठीक नहीं है। [ शब्दभावना का निराकरण करके अब यहाँ से आचार्य अर्थभावना का निराकरण करते हैं ] जैनाचार्य-और जो आपने कहा है कि "पुरुष व्यापार लक्षण अर्थभावना वेदवाक्य का अर्थ है" यह कथन भी अयुक्त है, अन्यथा नियोग भी वेदवाक्य का अर्थ हो जावेगा क्योंकि "नियुक्तोऽहमनेन वाक्येन यागादौ" मैं इस वेद वाक्य के द्वारा यज्ञादि कर्म में नियुक्त हुआ हूँ । इस प्रकार से ज्ञाता को अनुभव हो रहा है। भाट्ट-इस प्रकार से शब्द ब्यापार रूप से शब्दभावना ही सिद्ध होती है अतः ऐसा शब्दभावना रूप नियोग हमें इष्ट है हमने तो शुद्ध कार्यादिरूप ही नियोग का निराकरण किया है। 1 गुणः । 2 द्रव्यम् । 3 भाट्टः। 4 विशिष्टः । (ब्या० प्र०) 5 जैनः। 6 स्वरूप । (ब्या० प्र०) 7 लिङादीनां शब्दव्यापारविषयत्वाभावे सति । 8 अर्थभावनातः। 9 इदानीमर्थभावनां निराकर्तुमुपक्रमते। 10 देवदत्तः करोतीत्यादिलक्षणा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy