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________________ १२० ] अष्टसहस्री [ कारिका ३[ वेदवाक्येन यज्ञकार्ये प्रवर्त्तमानः पुरुषः स्वर्गादि फलमपश्यन् कथं प्रवर्तेत इति शंकायां भादृस्य प्रत्युत्तरं ] स्यान्मतम् ।व्यापार एष मम किमवश्यमिति मन्यते । फलं विनव नैवं चेत् सफलाधिगमः कुतः ॥इति ॥ तिदप्यसमीक्षिताभिधानम्-अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इत्यादिवेदवाक्यसामर्थ्यादेव पुरुषेण 'तदा मम एष व्यापार इति प्रत्येतु शक्यत्वात् । ममेदं कर्तव्यमिति फलमपश्यन् कथं 'प्रत्येतीति चेत् प्रत्यक्षत:10 कथं प्रत्येति ? 11फलयोग्यतायाः प्रतीतेरिति चेद्वाक्यादपि तत एव तथा प्रत्येतु । 1-फलस्यातीन्द्रियत्वात्कथं तद्योग्यता शब्द भावना अप्रधान है अर्थ भावना प्रधान है इस प्रकार से हमने वेदवाक्य का अर्थ भावना किया है कि नियोग से विशिष्ट है और विशेषण विशेष्य भाव परस्पर में अविनाभावी हैं अतएव वेदवाक्य से प्रेरित होने पर पुरुष अपने यज्ञ रूप व्यापार में प्रवृत्ति करता है यह अर्थ हुआ। [ वेदवाक्य से यज्ञकार्य में प्रवृत्त हुआ पुरुष स्वर्ग रूप फल को देखे बिना कैसे प्रवृत्त होगा? ऐसा प्रश्न होने . पर उत्तर ] बौद्ध - इलोकार्थ-पुनः यह व्यापार मेरा अवश्य करणीय है इस प्रकार से ही कैसे मानता है अर्थात वेद के द्वारा कहा गया यागादि लक्षण व्यापार अवश्य ही मेरा है यह बात पुरुष स्वर्गादि फल को देखे बिना जानता है या फल को देखकर के ? यदि वाक्य के उच्चारण काल में स्वर्गादि फल का अभाव है तो मेरा व्यापार है यह बात कैसे मानता है ? , यदि फल को देखे बिना नहीं मानता है तो ज्ञान और प्रवृत्ति की सफलता कैसे होगी ? भाद्र-यह आपका कथन भी अविचारित ही है। क्योंकि "अग्निष्टोमेन यजेत् स्वर्ग कामः" इत्यादि वेदवाक्य की सामर्थ्य से तो पुरुष के द्वारा उस वाक्य के उच्चारण काल में यह मेरा व्यापार है ऐसा निश्चय करना शक्य है। __सौगात-यह मेरा कर्त्तव्य है इस प्रकार से फल को (स्वर्ग को) नहीं देखते हुए पुरुष कैसे निश्चय करेगा? भाद्र-ऐसा कहो तो आप सौगत भी फल के बिना (स्नान पान आदि फल को देखे बिना) प्रत्यक्ष प्रमाण से यह "जल" है इस प्रकार से कैसे जानते हो क्योंकि स्नानादि फल तो वहां भी प्रत्यक्ष ज्ञान में देखा नहीं जाता है। 1 सौगतस्य। 2 वेदेनोक्तो यागादिलक्षणो व्यापारोऽवश्यं ममेदं स्वर्गादिफलं विना पुरुषोऽवेति न वा। 3 वाक्योच्चारणकाले फलाभावश्चेन्ममैष व्यापारः कथं मन्यते। 4 फलं विनापि मन्यते चेत् । 5 प्राप्तिरवगतिश्च । 6 भाद्रः। 7 वाक्योच्चारणकाले। 8 सौगतः। 9 स्नानपानादिफलमपश्यन् । (ब्या० प्र०) 10 भद्रो वदति । सोगतं फलं विना प्रत्यक्षप्रमाणादिदं जल मिति कथं जानाति स्नानादिफलमपश्यन् भवान् कथं प्रत्येति । 11 सौगतः। (स्नानपानादि)। 12 फलयोग्यतायाः प्रतीतेरेव। 13 फलस्य स्वर्गादेः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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