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________________ * पुरोवाक * --आर्यिका ज्ञानमती श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ॥ श्री विद्यानंद स्वामी का यह कहना है कि एक अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिये अन्य हजारों ग्रन्थों को सुनने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इस एक अष्टसहस्री ग्रन्थ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का स्वरूप जान लिया जाता है। महान् आचार्य श्री उमास्वामी जी ने महान् ग्रन्थराज तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की रचना के प्रारम्भ में "मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभूतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तदगुणलब्धये" इस मंगल श्लोक को रचा है। श्रीसमंतभद्रस्वामी ने इस मंगलाचरण श्लोक का आधार लेकर 'आप्तमीमांसा' नाम से एक स्तोत्र रचा है जिसका अपरनाम 'देवागमस्तोत्र' भी है। श्रीभद्राकलंक देव ने आप्तमीमांसा स्तुति पर 'अष्टशती' नाम से भाष्य बनाया है । जो कि जैनदर्शन का एक अतीव गुढग्रन्थ बन गया है । इसी भाष्य पर आचार्यवर्य श्री विद्यानंदमहोदय ने 'अष्टसहस्री' नाम से अलंकार टीका बनाई है जो कि जैनदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ कहलाता है । इसमें दश परिच्छेद में अस्तिनास्ति, भेद-अभेद, द्वैत-अद्वैत आदि एक-एक प्रकरणों के एकांतों का पूर्वपक्ष पूर्वक निरसन करके सर्वत्र स्याद्वादप्रक्रिया से वस्तुतत्व को समझाया गया है। वास्तव में तत्त्व-अतत्त्व को समझने के लिये यह न्याय ग्रन्थ एक कसोटी . का पत्थर है और अधिक तो क्या कहा जाये श्री स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य ने आप्त और अनाप्त की मीमांसा करते हुये आप्तअर्हतदेव को ही न्याय की कसौटी पर कसकर सत्य सिद्ध किया है, देखिये ! देवागमनभोयान-चामरादि-विभूतयः मायाविष्वपि दृष्यंते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ अतिशय गुणों से युक्त भगवान् की स्तुति करने के इच्छुक श्री समंतभद्रस्वामी स्वयं अपनी श्रद्धा और गुणज्ञता लक्षण प्रयोजन से ही इस देवागम स्तव में आप्त की मीमांसा करते हये भगवान् से प्रश्नोत्तर करते हुये के समान ही कहते हैं । अर्थात् मानो भगवान यहाँ प्रश्न कर रहे हैं कि हे समंतभद्र ? मुझ में देवों का आवागमन, चमर, छत्रादि अनेकों विभूतियाँ हैं फिर भी तुम मुझे नमस्कार क्यों नहीं करते हो ! तब उत्तर में स्वामी जी कहते हैं कि "हे भगवन् ! आपके जन्म कल्याणक आदिकों में देव, चक्रवर्ती आदि का आगमन, आकाश में गमन, छत्र, चामर, पुष्पवृष्टि आदि विभूतियाँ देखी जाती है किंतु ये विभूतियां तो मायावी जनों में भी हो सकती हैं अतएव आप हमारे लिये महान्-पूज्य नहीं हैं। इस पर भगवान मानों पुनः प्रश्न करते हैं कि हे समंतभद्र ! बाह्य विभूतियों से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया तो न सही किन्तु मस्करी आदि में असंभवी ऐसे अंतरंग में पसीना आदि का न होना एवं बहिरंग में जो गंधोदक वृष्टि आदि महोदय हैं जो कि दिव्य और सत्य हैं वे मुझ में हैं अतः आप मेरी स्तुति करिये । इस पर श्रीसमंतभद्रस्वामी कहते हैं कि अंतरंग और बहिरंग शरीरादि के महोदय भी रागादिमान देवों में पाये जाते हैं अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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