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अष्टसहस्री
विधिवाद के खंडन का सारांश
भाट्ट - आप कहें कि विधि ही वेदवाक्य का अर्थ है तो आपके विधिवाद में भी हम प्रश्न करेंगे कि – विधि प्रमाण है या प्रमेय, उभयरूप है या अनुभय रूप, शब्दव्यापार रूप है या पुरुष व्यापाररूप, उभयव्यापाररूप है या अनुभय व्यापाररूप है ? यदि आप विधि को प्रमाण कहेंगे तो आप ब्रह्माद्वैतवादियों के यहाँ अन्य प्रमेय और क्या होगा ? यदि आप विधि के स्वरूप को ही प्रमेय कहो तो सर्वथा निरंश, सन्मात्र देह वाली विधि प्रमाण और प्रमेय ऐसे दो रूप वाली कैसे होगी ? एवं प्रमाण प्रमेय को कल्पित कहने पर तो आप बौद्ध ही हो जावोगे, क्योंकि बौद्ध भी प्रमाण और प्रमेय दोनों को कल्पित - अन्यापोह रूप अर्थ से मानता है किन्तु अन्यापोह को वस्तु का कथन करने वाला नहीं मानता है एवं कल्पित उपनिषद्वाक्य से या हेतु से परब्रह्म का ज्ञान कैसे होगा ? यदि इन्हें वास्तविक कहोगे तो द्वैत आ जावेगा । दूसरी बात यह है कि ये उपनिषद्वाक्य अचित्स्वभाव हैं। या चित्स्वभाव ? यदि अचित्स्वभाव कहो तो ब्रह्मा से भिन्न अचेतन रूप होने से द्वैत हो गया। यदि चित्स्वभाव कहो तो प्रतिपादक - गुरु के चित्स्वभाव हैं या प्रतिपाद्य - शिष्य के अथवा दोनों के ? यदि गुरु का कहो तो शिष्य को ज्ञान नहीं होगा । यदि शिष्य का कहो तो गुरु को ज्ञान नहीं होगा, यदि दोनों का चित्स्वभाव मानों तो प्रश्न करने वाले अनेक मनुष्यों को ज्ञान नहीं हो सकेगा । यदि कहो कि ये आगम वाक्य और हेतु सभी के चित्स्वभाव हैं तो यह गुरु है, यह शिष्य है, ये प्राश्निक हैं इत्यादि भेद नहीं हो सकेंगे। यदि इन भेदों को अविद्या से मानों तो अविद्या गुरु में ही गुरु का बोध न कराकर शिष्य में गुरु का एवं गुरु में शिष्य का भी ज्ञान करा देगी, क्योंकि वह तो अविद्या ही है। और वह एक ही है, सभी में अभिन्न रूप से समान काल में रहती है एवं अविद्या को अविद्या से कल्पित कहने पर तो विद्या ही सिद्ध हो गई अतः सभी में संकर दोष हो जावेगा, यदि आगमादि को ब्रह्मा से भिन्न ही मानोगे तो बाह्य वस्तु के सिद्ध हो जाने से अद्वैतवाद समाप्त हो जावेगा ।
[ कारिका ३
यदि विधि को प्रमेय रूप मानो तो किसी भिन्न प्रमाण को मानना ही होगा पुनः द्वैत आ जावेगा । यदि उभयरूप कहो तो भी विरोध ही है । अनुभयरूप मानने पर तो खरविषाण के समान अवस्तु ही हो जावेगी । यदि पांचवां विकल्प लेवो तो भाट्ट के मत में प्रवेश होगा तथैव छठे में भी वही बात है । उभय के व्यापार से कहो, तो क्रम से या युगपत् ? इन दो विकल्पों से दोष आते हैं । एवं अनुभय व्यापाररूप विधि को कहो तो वे ही प्रश्न मौजूद हैं कि विधि विषय का स्वभाव है या फल का स्वभाव है अथवा निस्स्वभाव ? विषय का स्वभाव कहो तो निरालंबवाद में प्रवेश हो जाता है । तथैव फल का स्वभाव कहने पर भी वाक्य के काल में स्वर्गादि फल असंनिहित होने से निरालंबवाद ही आता है । निःस्वभाव कहो तो "वेदवाक्य का कुछ भी अर्थ नहीं है" ऐसा हो जाता है |
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