SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टसहस्री [ कारिका ३ सो'यमविद्या विवेकि सन्मानं 'कुतश्चित्प्रतीयन्नेव न निषेप्रत्यक्षमन्यद्ध देवेति ब्रुवाणः कथं स्वस्थः ? कथं वा प्रत्यक्षादेनिषेद्ध त्वाभावं प्रतीयात्' ? यतस्तत्प्रतिपतिः-तस्यैवाभावविषयत्वसिध्दे: । 1प्रत्यक्षादेविधातत्वप्रतिपतिरेव निषेद्ध त्वाभावप्रतिपत्तिरिति चेत्तहि सिद्धं भावाभावविषयत्वं 1 तस्येति न 12परोदितो विधिक्यिार्थः सिद्धयति । नियोगस्यैव वाक्यार्थत्वोपपत्तेः प्रभाकरमतसिद्धिः । । और उपनिषद् वाक्य हैं ऐसा नियम करना असंभव है, अन्यथा उस प्रत्यक्ष अथवा उपनिषद् वाक्य से विद्या के समान अविद्या का भी विधान हो जावेगा। तथा च आप विधिवादी अविद्या का परिहार करके सन्मात्र को किसी प्रमाण से प्रतीतिगत करते हैं एवं प्रत्यक्ष निषेध करने वाला नहीं है, अथवा अन्य उपनिषद्वाक्य निषेध करने वाले नहीं हैं ऐसा कहते हुये स्वस्थ कैसे हैं ? क्योंकि अन्य का निषेध करके ही आप विधि में प्रवृत्त हैं। अथवा प्रत्यक्षादि से निषेध करने वाले के अभाव को कैसे प्रतीत करेंगे ? अर्थात् प्रत्यक्ष निषेध करने वाला नहीं है यह वचन विरुद्ध है, क्योंकि जो विधि का ज्ञान है वही अभाव को विषय करने वाला है, मतलब जिस प्रमाण से विधि का ज्ञान होता है उसी से ही प्रतिषेध का ज्ञान सिद्ध है। इसलिये "प्रत्यक्ष निषेध करने वाला नहीं है" ये आपके वचन विरुद्ध ही हैं। विधिवादी-प्रत्यक्षादि से विधाता का ज्ञान होना ही निषेद्धृत्व के अभाव का ज्ञान है । भाट्ट-ऐसा कहो तब तो यह बात सिद्ध हो गई कि प्रत्यक्षादि प्रमाण का विषय भावाभावात्मक है इसलिये वेदांतवादी के द्वारा कही गयी विधि ही वेदवाक्य का अर्थ है यह कथन सिद्ध नहीं हो सकता है। एवं नियोग ही वेदवाक्य का अर्थ सिद्ध हो जाने से नियोगवादी प्रभाकर के मत की सिद्धि हो जाती है। भावार्थ-विधिवादी का कहना है कि प्रधान रूप से वेदवाक्य का अर्थ विधि ही है और वही प्रवृत्ति का अंग है किन्तु किसी भी शब्द का अर्थ निषेध नहीं है जैसे किसी को जल में स्नान करने की या उसे पीने की इच्छा है तो वह जल चाहता है और 'जल' इस शब्द के सुनने से जल को ही खोजता है। यदि वह व्यक्ति जल में पररूप का निषेध करने लगे तो पररूप तो अनंत हैं "यह जल है" इस 1 स्याद्वाद्याह ।-सोयं विधिवादी अविद्यापृथग्भूतं सन्मानं कुतश्चित्प्रमाणाज्जानन्नेव निषेद्ध प्रत्यक्षं नान्यत् (विधात्रेव प्रत्यक्षं न) इति जल्पन् कथं स्वस्थ: स्यात् ? अपि तु न । अविद्याया विवेकः पृथग्भावः अविवेकः सोस्यास्तीत्यविद्याविवेकि तच्च तत्सन्मात्रं चाविद्याविवेकिसन्मात्रम् । अविद्याया: सन्मात्रे शुन्यत्वमित्यत्रैव प्रतिषेधः प्रतीयते। 2 विवेकेन इति पा० । व्यावृत्त्या । (व्या० प्र०) 3 अविद्याविवेकेन (अविद्यापरिहारेण) सन्मात्रमिति पाठ: खपुस्तकीयः । 4 प्रमाणात्। 5 उपनिषद्वाक्यम् । अन्यद्वेति खपाठः। 6 अन्यव्यावृत्तिरूपेण सन्मात्रे प्रवृत्तः। (व्या० प्र०) 7 ततश्च न निषेद्ध प्रत्यक्षमिति वचो विरुध्येत । 8 यस्मात् प्रमाणाद्विधिप्रतिपत्तिस्तस्मादेव प्रतिषेधप्रतिपत्तिः सिद्ध्यति। 9 ततश्च न निषेद्ध प्रत्यक्षमिति वाचो विरुद्धयेत्। (ब्या० प्र०) 10 विधिवादी। 11 प्रत्यक्षादेः प्रमाणस्य । 12 वेदांतवादि । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy