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________________ ( १३ ) पृष्ठ नं. ४१४ ४१५ ४१८ ४१६ ४२२ ४२४ सर्वज्ञ के वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं ईच्छा के बिना भी भगवान् के वचन निर्दोष हैं सर्वज्ञ के वचन इच्छापूर्वक ही होते हैं ऐसी मान्यता में क्या दोष है ? इसका समाधान बोलने की इच्छा भी सर्वज्ञ वचन में सहकारी है इस मान्यता का निराकरण कोई कहता है कि दोषों का समुदाय ही सर्वज्ञ के बोलने में हेतु है......... भगवान् का अनेकांत शासन प्रसिद्ध प्रमाण से बाधित नहीं होता है तर्क ज्ञान प्रमाण है जैनमत के तर्क ज्ञान प्रमाण है और वह व्यवसायात्मक ही है निर्विकल्प दर्शन अप्रमाण है बौद्ध के द्वारा मान्य निर्विकल्प दर्शन भी प्रामाणिक नहीं है जैसे कि सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है नवनीत सन्निकर्ष के समान निर्विकल्प दर्शन भी प्रमाण नहीं है इस बात को सिद्ध करके अब एकांतवादियों के मत में अनुमान प्रमाण भी सिद्ध नहीं होता है । अत: वे अनेकांत में.... प्रशस्तिपरिशिष्टउद्धत श्लोक पारिभाषिक शब्दों के अर्थ ४२६ ४३१ ४४० Samsin Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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