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________________ ४२ ] अष्टसहस्त्री [ कारिका ३[ नियोगः फलरहितः फल सहितो वेत्युभयपक्षे दोषारोपणम् ] किञ्च नियोगः फलरहितो वा स्यात् फलसहितो वा ? फलरहितश्चेत्, न ततः प्रेक्षावतां प्रवृत्ति: अप्रेक्षावत्त्वप्रसङ्गात्', प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते इति प्रसिद्धेश्च । प्रसिद्धचण्ड नरपतिवचननियोगादफलादपि प्रवर्तनदर्शनाददोष इति चेन्न, तस्यापायपरिरक्षणफलत्वात् । तन्नियोगादप्रवर्त्तने तदाज्ञोल्लङ्घन कृतामपायोवश्य' सम्भवतीति । सभी प्रमाणों से विधिवाद-सत्-चित् परमब्रह्मस्वरूप ही सिद्ध होता है। यदि आप द्वितीय पक्ष में उस नियोग को प्रवृत्ति नहीं कराने वाला मानेंगे तब तो उन "यजेत" आदि वाक्यों से यज्ञादि कार्य में कभी भी प्रवृत्ति ही नहीं कर सकेंगे पुनः आप कर्मकांडी मीमांसक कैसे रहेंगे? अतः उपर्युक्त विकल्पों से भी वेदवाक्य का अर्थ नियोग सिद्ध नहीं होता है । - [ नियोग फल रहित है या फल सहित ] प्रकारांतर से यह भी प्रश्न होता है कि वह नियोग फल रहित है या फल सहित है ? यदि फल रहित मानों तब तो उस फल रहित नियोग में बुद्धिमान् पुरुषों की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी अन्यथा वे बुद्धिमान् भी मूर्ख ही हो जावेंगे क्योंकि "प्रयोजन के बिना मंद-मूढ़ भी प्रवृत्ति नहीं करते हैं" यह बात प्रसिद्ध है। अर्थात् बुद्धिमान जन फल की अभिलाषा से ही प्रवृत्ति करते हैं । यदि फल के अभाव में भी प्रवृत्ति करेंगे तब तो विद्वान् नहीं कहे जा सकेंगे । प्रभाकर प्रसिद्ध अत्यंत क्रोधी राजा के वचन के नियोग से-फल रहित भी वचन के नियोग से प्रवृत्ति देखी जाती है अतः कोई दोष नहीं है । __ भाट्ट-ऐसा भी नहीं कहना, वह प्रवृत्ति भी अपाय (कष्ट) से परिरक्षण रूप फल वाली है क्योंकि उस क्रोधी राजा के वचनादेश से प्रवत्ति न करने पर तो उस राजा की आज्ञा का उलंघन करन वाल मनुष्यो का धनापहरण आदि अपाय अवश्यंभावी है। प्रभाकर-तब तो वेदवाक्य से भी नियुक्त हुआ मनुष्य प्रत्यवाय विघ्नों को दूर करने के लिये प्रयत्न करे क्योंकि हमारे यहाँ कहा भी है कि विघ्नों को दूर करने के लिये नित्य और नैमित्तिक अनुष्ठानों को करे अर्थात् त्रिकाल संध्या, उपासना, जप, देव, ऋषि, पितृ-तर्पण आदि अनुष्ठान नित्य कर्म कहलाते हैं एवं अमावस्या, पौर्णमासी, ग्रह, ग्रहण आदिकों में किया गया अनुष्ठान नैमितिक कहलाता है। इन नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को विघ्नों का नाश करने के लिये करे" । 1 फलरहितानियोगाद्विचारचतुराणां प्रवृत्तिन घटते। घटते चेतदा तेषामप्रेक्षावत्त्वं सजतीति । 2 अन्यथा । प्रेक्षावंतः फलमभिलष्य प्रवर्तते यदि फलाभावे प्रवर्तते तहि-1(ब्या० प्र०)। 3 प्रसिद्ध इत्ययं शब्द: ख पुस्तके नास्ति । 4 चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः। 5 चण्डनरपतिवचनादेशात् । 6 जनानाम् । 7 वित्तापहारादिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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