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________________ नियोगवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ३३ जाताकृतेना हङ्कारेण' स्वयमात्मैव प्रतिभाति स एव विधिरिति वेदान्तवादिभिरभिधानात् । (२) प्रमेयत्वं तर्हि नियोगस्यास्तु प्रमाणत्वे दोषाभिधानादित्यप्यसत्-प्रमाणाभावात् । प्रमेयत्वे हि तस्य' प्रमाणमन्यद्वाच्यम्-तदभावे प्रमेयत्वायोगाद् । श्रुतिवाक्यं प्रमाणमिति चेन्न—'तस्याचिदात्मकत्वे प्रमाणत्वाघटनादन्यत्रोपचारात् । संविदात्मकत्वे श्रुति और सुने गये एवं मनन किये गये निश्चित अर्थ का हमेशा ही मन से परिचिन्तन करना निदिध्यासितव्य है । ऐसा तीनों का अर्थ समझना चाहिये। भावार्थ-विधि है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर यह है कि अरे मैत्रेय ! यह आत्मा दर्शन करने योग्य है और आत्मा का दर्शन यों होता है कि पहले उस आत्मा का वेदवाक्यों के द्वारा श्रवण करना चाहिये तभी ब्रह्म ज्ञान में तत्परता हो सकती है। पूनः श्रत आत्मा का युक्तियों से विचार कर अनुमनन करना चाहिये। श्रवण और मनन से निश्चित किये गये अर्थ का मन से परिचिन्तन करना चाहिये अथवा "तत्त्वमसि' वह प्रसिद्ध ब्रह्म तू ही है इत्यादि वैदिक शब्दों के श्रवण से मैं पहली अदर्शन, अश्रवण आदि अवस्थाओं की अपेक्षा विलक्षण हो रही दूसरी अवस्थाओं से इस समय प्रेरित हो गया हूँ, इस प्रकार से "अहं" शब्द का दर्शन आदि द्वारा प्रत्यक्ष कराने रूप अहंकार अथवा आकार वाली चेष्टा करके स्वयं आत्मा ही प्रतिभासित हो रही है और वह आत्मा ही तो विधि है इस प्रकार वेदांतवादियों का कथन है। अतः नियोग को प्रमाण रूप मानने पर आप प्रभाकर को वेदांतवादी बनना ही पड़ेगा। (२) इस पर यदि आप कहें कि नियोग को हम प्रमेय मानेंगे क्योंकि आपने उसको प्रमाण मानने से अनेक दोष दिये हैं सो यह कथन भी असत है क्योंकि नियोग को प्रमेय सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण नहीं है। नियोग को प्रमेय मान लेने पर तो उसको ग्रहण करने वाला अन्य कोई प्रमाण आप प्रभाकर को कहना ही चाहिये क्योंकि प्रमाण के अभाव में प्रमेय है, यह कैसे कहा जावेगा ? "प्रमाणेन ज्ञातुं योग्यम् प्रमेयं" जो प्रमाण के द्वारा जानने योग्य है वही तो प्रमेय है। 1 अप्रेरितावस्थाविलक्षणेनाकारण प्रेरितोहमित्यभिमानरूपेण । 2 दर्शनादिना। 3 जाताकृतेनाकारेण इति पा० (ब्या० प्र०)। 4 प्रमेयरूपस्य नियोगस्य ग्राहक प्रमाणम् । 5 प्रभाकरेण । 6 श्रुतिवाक्यं प्रमाणं, नियोगः प्रमेयमिति चेत् । 7 अत्राह भावनावादी भद्रः।-भो नियोगवादिन् प्रभाकर तावकं श्रुतिवाक्यं चिदात्मकमचिदात्मक वेति । तत्र विकल्पद्वयं खण्डयति । 8 चन्द्रवन्मुखमित्यादिरूपचारः। 9 ज्ञानात्मकत्वे सति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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