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________________ आप्त की परीक्षा ] प्रथम परिच्छेद [ २३ इस पर भगवान् मानो पुनः प्रश्न करते हैं कि हे समंतभद्र ! बाह्य विभूति से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया तो न सही किन्तु अन्य मस्करी आदि में असम्भवी ऐसे अंतरंग में पसीना आदि से रहितपना एवं बहिरंग गंधोदक की वृष्टि आदि महोदय हैं जो कि दिव्य हैं, सत्य हैं वे मुझमें हैं आप स्तुति करिये । इस पर स्वामी समंतभद्राचार्य कहते हैं कि ये महोदय भी रागादिमान् देवों में पाये जाते हैं अतः इनसे भी आप महान् नहीं हैं । इस पर कोई तटस्थ जैनी कहता है कि जैसा घाति कर्म के क्षय से होने वाला अतिशय भगवान् में है वैसा देवों में नहीं है । अतः "विग्रहादि महोदयत्वात् " हेतु व्यभिचारी नहीं है इसलिये कारिका का अर्थ ऐसा करना कि ये विग्रहादि महोदय रागादिमान् देवों में हैं ? अर्थात् नहीं है इस प्रकार वक्रोक्ति द्वारा अर्थ करने से आगम में बाधा नहीं आती है । इस पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते हैं कि पूर्ववत् ही यह हेतु आगमाश्रय होने से अहेतु है । अतः पूर्ववत् आप विग्रहादि महोदय के द्वारा भी हमारे लिये महान् पूज्य नहीं हो सकते हैं । तब तो देवों में भी असम्भवी ऐसे आगमरूप तीर्थकृत् सम्प्रदाय महोदय के द्वारा तो मैं अवश्य स्तुति करने योग्य हूँ इस प्रकार से मानो भगवान् के द्वारा साक्षात् प्रश्न करने पर हीं श्री समंतभद्र स्वामी प्रत्युत्तर देते हुये के समान कहते हैं कि हे भगवन् ! आगमरूप तीर्थ को करने वाले तीर्थंकरों में परस्पर में भिन्न-भिन्न अभिप्राय होने से विरोध पाया जाता है अतः सभी तो आप्त हो नहीं सकते अर्थात् मीमांसक, सांख्य, सौगत, नैयायिक, चार्वाक, तत्वोपप्लववादी, योग, ब्रह्माद्वैतवादी, चित्राद्वैतवादी, शब्दाद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी आदि अनेक एकान्त मतावलम्बियों में सभी के सर्वज्ञता सिद्ध नहीं हो सकती है इसलिये कोई एक ही गुरु परमात्मा हो सकता है । यहाँ भी तीर्थकृत्व हेतु देवों में असंभवी होते हुये भी बुद्धादिकों में पाया जाता है, क्योंकि सभी अपने-अपने बुद्ध, कपिल आदि को तीर्थंकृत् मानते हैं किन्तु सभी सर्वदर्शी नहीं हो सकते हैं । कुमारिलभट्ट ने कहा है कि "यदि बुद्ध भगवान सर्वज्ञ हैं सांख्य के गुरु कपिल सर्वज्ञ नहीं हैं इसमें क्या प्रमाण है और यदि दोनों ही सर्वज्ञ हैं तो उनमें मतभेद क्यों पाया जाता है?" इस पर मीमांसक कहता है कि कोई विशेष पुरुष सर्वज्ञ स्तुति करने योग्य नहीं है अतः अपौरुषेय वेद के द्वारा ही मोक्ष के साधनभूत उपदेश की एवं अतीन्द्रिय पदार्थ की सिद्धि हो जाती है । उनके प्रति आचार्य उत्तर देते हैं कि "तीर्थं कृततीति तीर्थकृत् मीमांसकः" तीर्थ का नाश करने वाले आप मीमांसक हैं क्योंकि आपके आगम तीर्थ के नाशक हैं एवं आपके वेदवाक्यों का अर्थ कोई तो भावना करते हैं कोई उससे विरुद्ध विधिरूप एवं कोई नियोगरूप करते हैं इसलिये इनमें परस्पर विरोध होने से आप्तता नहीं है । Jain Education International फ-फ्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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