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परमात्मप्रकाश
आत्माका एकत्वमें मिल जाना नहीं है, किन्तु उसका सीमित व्यक्तित्व उसके सम्भावित परमात्माका अनुभवन करता है । कम्मपर्याड, कम्मपाहुड़, कसायपाहुड़, गोम्मटसार आदि प्राचीन जैनशास्त्रोंमें बतलाया है कि किस तरह आत्मा गुणस्थानोंपर आरोहण करता हुआ उन्नत, उन्नतर होता जाता है और किस तरह प्रत्येक गुणस्थानमें उसके कर्म नष्ट होते जाते हैं । यहाँ उन सब बातोंका वर्णन करनेके लिये स्थान नहीं है । वास्तव में जैनधर्म एक तपस्याप्रधान धर्म है । यद्यपि उसमें गृहस्थाश्रमका भी एक दर्जा है, किन्तु मोक्षप्राप्ति के इच्छुक प्रत्येक व्यक्तिको साधु-जीवन बिताना आवश्यक एवं अनिवार्य होता है । साधुओंके आचार विषयक नियम अति कठोर हैं; वे एकाकी विहार नहीं कर सकते, क्योंकि सांसारिक प्रलोभन सब जगह वर्तमान है । वे अपना अधिक समय स्वाध्याय और आत्म ध्यानमें ही बिताते हैं; और प्रतिदिन गुरुके पादमूलमें बैठकर अपने दोषोंकी आलोचना करते हैं, और उनसे आत्म-विद्या या आत्म-ज्ञानका पाठ पढ़ते है । इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म में गूढ़वादके सब आवश्यक अंग पाये जाते हैं ।
पुण्य और पाप - मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियासे आत्माके प्रदेशोंमें हलन चलन होता है, उससे, कर्म - परमाणु आत्माकी ओर आकर्षित होते हैं । यदि क्रिया शुभ होती है, तो पुण्यकर्मको लाती है, और यदि अशुभ हो तो पापकर्मको । किन्तु पुण्य हो या पाप, दोनोंकी उपस्थिति आत्माको परतंत्रताका कारण है । केवल इतना अन्तर है, कि पुण्य कर्म सोनेकी बेड़ी है और पापकर्म लोहेकी । अतः स्वतंत्रता के अभिलाषी मुमुक्षु दोनों ही से मुक्त होने की चेष्टा करते हैं ।
परमात्मप्रकाशकी अपभ्रंश और आचार्य हेमचन्द्रका प्राकृत व्याकरण
'है' या 'हुँ' और 'हे'
कम उच्चारण होता
अपभ्रंश और उसकी विशेषता - अपभ्रंक्षका आधार प्राकृत भाषा है । यह वर्तमान प्रान्तीय भाषाओं से अधिक प्राचीन है । उपलब्ध अपभ्रंश - साहित्य के देखनेसे मालूम होता है कि जनसाधारण में प्रचलित कविता के लिये इस भाषाको अपनाया गया था, इसीसे इसमें प्रान्तीय परिवर्तनोंके सिवा कुछ सामान्य बातें ( Common characteristics ) भी पाई जाती हैं। हेमचन्द्रने अपनी अपभ्रंशमें प्राकृतकी कुछ विशेषताओं को भी अपवादरूपसे सम्मिलित कर लिया है। उन्होंने उदाहरण के लिये अपभ्रंश-पद्य उद्धृत किये हैं, एक- आघ शब्द या रूपको छोड़कर उनसे कुछ पद्य बिल्कुल प्राकृत में हैं । कुछ बातोंसे यह स्पष्ट है कि प्राकृतको सरल करनेके लिये अपभ्रंशमें अनेक उपाय किये गये हैं । उदाहरण के लिए, १ अपभ्रंश में स्वरविनिमय तथा उनके दीर्घ या ह्रस्व करनेकी स्वतंत्रता है, जैसे एक ही कारकमें 'हु' प्रत्यय पाये जाते हैं; और 'ओ' प्रत्ययकी जगह में 'उ' आता है । २ 'म' का बहुत है, क्योंकि इसके स्थान में प्रायः 'व' हो जाता है । ३ विभक्तिके अन्त में 'स' के स्थान में 'ह' हो जाता है। और इससे अनेक विचित्र रूप समझ में आ जाते हैं । यथा, मार्कण्डेय तथा अन्य लेखकोंके द्वारा प्रयुक्त 'देवहो' वैदिक 'देवास:' से मिलता जुलता है । इसी तरह 'देवहँ' प्राकृतके 'देवस्स' से 'ताहँ' तस्स से 'तहिँ ' 'तंसि' से और 'एहु' 'एसो' से लिया गया है । अवेस्ता तथा ईरानी भाषाओं में भी परिवर्तन हो जाता है । वर्तमान गुजराती में भी कभी कभी 'स' का 'ह' हो जाता है । बनाने के लिये प्राकृतको सन्धियाँ प्रायः शिथिल कर दी गई हैं । ५ कभी कभी कर्ता, कर्म और सम्बन्ध कारकमें प्रत्यय नहीं लगाया जाता । ६ शब्दोंके रूपोंपर स्वरपरिवर्तनका प्रभाव पड़ता है । ७ अव्ययों में इतना अधिक परिवर्तन हो गया है कि उनका पहचानना भी कठिन है; उनमें से कुछ तो सम्भवतः देशो भाषाओंसे आये हैं । ८ अनेक शब्दों में 'क' 'ड' 'ल' आदि जोड़ दिये गये हैं । ९ और देशी शब्दोंका भी काफी बाहुल्य है ।
संस्कृत 'स' का 'ह' में
४ उच्चारणको सरल
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