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प्रस्तावना
११७ समय देते हैं, किन्तु सिद्ध सदा अपने में ही लीन रहते हैं। अतः समाजके लिये, तीर्थङ्कर विशेष लाभदायक होते हैं।
गूढ़वादको कुछ विशेषताएँ-गढवाद या रहस्यवादकी व्याख्या कर सकना सरल नहीं है। यह मनकी उस अवस्थाको बतलाता है, जो तुरन्त निर्विकार परमात्माका साक्षात् दर्शन कराती है। यह आत्मा और परमात्माके बीचमें पारस्परिक अनुभूतिका साक्षात्कार है, ओ आत्मा और अन्तिम सत्यकी एकताको बतलाता है । इसमें जीव अपनी पूर्णता और स्वतन्त्रका अनुभव करता है। दूसरे, इसका अनुभव करनेके लिए ऐसी आत्माको आवश्यकता है, जो अपनेको ज्ञान और सुखका भण्डार समझे तथा अपनेको परमात्म पदके योग्य जाने । तीसरे, यदि गढ़वाद आध्यात्मिक और धार्मिक हो तो धर्मको ध्येय और ध्यातामें एकत्व स्थापित करनेका उपाय अवश्य बताना चाहिए। चौथे, गूढ वाद साधारणतया संसारके सम्बन्धमें और विशेष- . तया सांसारिक प्रलोभनोंके सम्बन्धमें स्वाभाविक उदासीनता दिखाता है। पांचवें गढ़वादने उस सामग्रीकी प्राप्ति होती है जो लौकिकज्ञानके साधन मन और इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही पूर्ण सत्यको जान लेती है । छठे, धार्मिक गूढवादमें कुछ नैतिक नियम रहते हैं, जो एक आस्तिकको अवश्य पालने चाहिए। सातवें, गूढ़वादसम्बन्धी रहस्योंका उपदेश करनेवाले गुरुओंका सम्मान करना भी एक गूढवादीका कर्तव्य है।
जैनधर्ममें गूढ़वाद-क्या जैनधर्म सरीखे वेदविरोधी धर्ममें गढ़वादका होना संभव है ? कुन्दकुन्द और पूज्यपादके ग्रन्थों के अवलोकनसे उक्त शंका निराधार प्रमाणित होती है। यहाँ यह अधिक युक्तिसङ्गत होगा कि प्राचीन जैनग्रन्थोंसे कुछ बातें (Data ) सङ्कलित की जावें, और देखा जावे कि जैनधर्मने गूढवाद को कौन-सी मौलिक वस्तु प्रदान की है, और वेदान्तके गढ़वादसे उसमें क्या समानता या अन्तर है ? ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि जैनतीर्थङ्कर संसारके गिने चुने गढ़वादियोंमेंसे हैं। जैनधर्मके प्रथम तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेवके सम्बन्धमें प्रो० रानडे ने ठीक ही लिखा है, कि वे एक भिन्न ही प्रकारके गढवादी थे, उनकी अपने शरीरके प्रति अत्यन्त उदासीनता उनके आत्मसाक्षात्कारको प्रमाणित करती है। पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि भागवतमें प्राप्त ऋषभदेवका वर्णन जैन पौराणिक वर्णनोंसे बिल्कूल मिलता है।
जैनधर्ममें गूढ़वाद-सम्बन्धी सामग्री-ईश्वरवादियोंके अद्वैतवादसे कहीं अधिक अद्वैतवाद और ईश्वरवादको गूढ़वादका आधार माना जाता है । अनुभवकी श्रेष्ठ दशामें आत्मा किसी दैवी शक्ति के साथ एकताका अनुभव करता है। विलियम जेम्सका कहना है कि मनकी गूढ़ वृत्तियाँ प्रत्येक मात्रामें सर्वदा नहीं तो प्रायः अद्वैतवादका समर्थन करती हैं, जैसा कि इतिहाससे प्रदर्शित होता है । अतः गढ़वादमें अद्वतवाद के लिए पर्याप्त स्थान है, और जैसा कि ऊपर कह आये हैं। वेदान्तमें तो ब्रह्म ही सब कुछ है। किन्तु, ज्ञानदेवका आध्यात्मिक गढ़वाद अद्वत और द्वतको मिला देता है क्योंकि उनमें एकत्व और नानात्व, दोनोंको ही स्थान दिया है। जैन गढ़वाद दो तत्त्वोंपर अवलम्बित है। वे दो तत्त्व है-आत्मा और परमात्मा। किन्तु परमात्मासे मतलब ईश्वर है, न कि जगन्मियता । जैनदृष्टिसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है, केवल संसार अवस्थामें आत्मा कर्मबन्धनके कारण परमात्मा नहीं हो सकता। कर्मोंका नाश करके गूढवादी इस एकता या समानताका अनुभव करता है। जैनधर्मकी परमात्मा सम्बन्धी मान्यता आत्मकैवल्य ( Personal absolute ) से कुछ मिलती-जुलती है। जैनधर्म में आत्मा परमात्मा हो जाता है, किन्तु वेदान्तियोंकी तरह ब्रह्ममें लीन नहीं होता। जैनधर्ममें आध्यात्मिक अनुभवसे मतलब एक विभक्त
१ महाराष्ट्रमें गुढ़वाद, पृ० ९।
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