________________
अन्वय-तुल्येऽपि साधने एतत् शुभाशुभ फलं च चेतसा सुवि मृश्यताम् हेतुं विना फले कुतः भेदः॥४॥
अर्थ-समान साधन का उपयोग होने पर भी मनुष्य के शुभ एवं अशुभ कर्मों का फल निष्पन्न होता है। इसे चित्त से विचार कर देख लो। यदि इसके मूल में कोई कारण नहीं होता तो फल में इतना अन्तर क्यों होता हैं ?
यथा सर्वेषु वृक्षेषु जलमेकं पयोमुचः। नानारसान् जनयति धर्मः प्राणिगणे तथा ॥५॥
अन्वय-यथा सर्वेषु वृक्षेषु एकं जलं पयोमुचः (वर्षयति) नानारसान् जनयति तथा धर्मः प्राणिगणे (करोति)॥५॥
___ अर्थ-जिस प्रकार सभी वृक्षों पर एक ही जल बरसाता हुआ बादल नाना प्रकार के खारे मीठे कड़वे तीखे आदि रस वाले फलों को पैदा करता है वैसे ही धर्म भी मनुष्य मनुष्य के कर्मों के अनुसार ही अच्छा अथवा बुरा फल प्रदान करता है।
धर्माधर्ममयो लोक-स्तत्रापि धर्ममुख्यता। जीवाजीवमये देहे जीवस्यैवास्ति तत्त्वतः ॥६॥
अन्वय-लोकः धर्माधर्ममयः तत्रापि धर्ममुख्यता जीवाजीवमये देहे तत्त्वतः जीवस्य (मुख्यता) एव अस्ति ॥६॥
अर्थ-संसार धर्म एवं अधर्म मय है पर वहाँ धर्म की ही प्रधानता है। वैसे ही जीव एवं अजीव मय इस शरीर में तत्त्व से प्रधानता आत्मा की है।
काले यथैव त्रैविध्यमुपचारेण गीयते । ज्ञानधर्मे तथैकस्मिन् भेदत्रयमुदाहृतम् ॥७॥
अन्वय-यथा काले उपचारेण त्रैविध्यं गीयते तथैव एकस्मिन् शानधर्गे भेदत्रयं उदाहृतम् ॥७॥
पष्ठोऽध्यायः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org