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अर्थ-ज्ञान का दान देने से अक्षयज्ञान की प्राप्ति होती है। दृढ़ श्रद्धा से सम्यग्दृष्टि (समकित ) की निर्मलता प्राप्त होती है। अहिंसा का पालन करने से सिद्ध पद में अक्षयस्थिति की प्राप्ति होती है।
अधर्मकारणं त्याज्यं यथा मोक्षार्थिना तथा । ग्राह्यो ज्ञानमयो धर्मः शर्म स्यात् शाश्वतं यतः ॥ १८ ॥
अन्वय-यथा मोक्षार्थिना अधर्मकारणं त्याज्यं तथा (तेन) ज्ञानमयः धर्मः ग्राह्यः यतः शाश्वतं शर्म स्यात् ॥ १८ ॥
अर्थ--इसीलिए मोक्षार्थी अधर्म के सभी कारणों का त्याग कर देता है और ज्ञानमय धर्म ग्रहण करता है जिससे कि शाश्वत सुख की प्राप्ति हो सके।
संवरः स्यादास्रवोऽपि संवरोप्याश्रवायते । ज्ञानाज्ञानफलं चैतन्मिथ्या सम्यक् श्रुतादिवत् ॥ १९ ॥
अन्वय-मिथ्या सम्यक् श्रुतादिवत् एतत् ज्ञानाज्ञानफलं (यत्) आस्त्रवः अपि संवरः स्यात् संवरः अपि आश्रवायते ॥ १९॥ .
अर्थ-मिथ्या एवं सम्यक् श्रुत की तरह यह ज्ञान और अज्ञान क, फल है कि जिसके कारण संवर (कर्मों को प्रवेश) आश्रव (कर्मों का रोकना) बन जाते हैं एवं अज्ञान के फलस्वरूप संवर भी आस्रव में परिणीत हो जाता है। अर्थात् मोक्ष प्राप्ति में ज्ञान की मुख्य भूमिका है उपयोग पूर्वक किया गया कर्म संवर का कारण बन जाता है एवं प्रमाद पूर्वक अज्ञानावस्था में किया गया शुभ कर्म भी आस्रव का कारण बन जाता है।
चित्रसारथिना माया कोपो गणिविनिग्रहे । मानः पराऽनतेजस्य मुनेः पात्रादिसंग्रहः ॥ २० ॥
अन्वय-चित्रसारथिना माया कोपः गणिविनिग्रहे शस्य परानतेः मानः मुनेः पात्रादिसंग्रह ॥ २० ॥ अध्याय चर्तुथः
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