________________
अर्थ-यह ज्ञान देवता अपने शुद्ध स्वरूप से शिव एवं सिद्ध रूप में अवस्थित आत्मा में ब्रह्मभाव का सद्ज्ञान उत्पन्न करती है अतः विशालता के कारण यह भी ब्रह्म स्वरूपा सरस्वती केवल पर ब्रह्म अर्हद् भगवान की वाणी में विलसित हो रही है।
ब्रह्मास्मिन्निति जीवोऽपि ब्रह्मात्मैव तदाश्रयात् । वढेराश्रयतोऽङ्गारो वह्निमण्डलमंशुमान् ॥ ६ ॥
अन्वय-अस्मिन् (जीवे) ब्रह्म (अतः) तदाश्रयात् जीवः अपि ब्रह्मात्मा एव। यथा वह्नः आश्रयतो अङ्गारो अंशुमान् बह्निमण्डलम् (एव) ॥६॥
अर्थ-जीव में भी ब्रह्म है अतः उसके आश्रय से जीवात्मा भी ब्रह्मात्मा ही है जैसे अग्नि का आश्रयी अंगारा भी देदीप्यमान अग्निमण्डल ही होता है।
ब्रह्मणा ज्ञायमानोऽर्थः सर्वो ब्रह्माऽभिधीयते । तत्तद्विषयिणः शुद्धेर्विषयेऽध्यवसायतः ॥ ७ ॥
अन्वय-विषयिणः तत् तत् शुद्धेः विषये ब्रह्मणा शायमानः सर्वः अर्थः अध्यवसायतः ब्रह्म अभिधीयते ॥७॥
अर्थ-अग्नि का विषय अंगारा भी अग्नि ही है इस न्याय से विषयी ( पदार्थ ) के उन सभी शुद्ध विषयों में शुद्धज्ञान से (ब्रह्मणा) ज्ञायमान अर्थ भी अध्यवसाय से ब्रह्म ही कहलाता है।
विवेचन-ब्रह्म द्वारा ज्ञायमान सभी पदार्थ ब्रह्म ही है क्योंकि जिस प्रकार अग्नि एवं अंगारों को अलग नहीं किया जा सकता है अर्थात् उनमें अविनाभाव है वैसे ही ब्रह्म एवं उसके पदार्थ जीव में भी अविनाभाव है वस्तुतः दोनों एक ही हैं। इस न्याय से जीवात्मा (विषय) को भी ब्रह्म (विषयी) के नाम से अभिहित करते हैं । आत्मा सो परमात्मा। दलतया परमात्मा एव जीवात्मा ।
श्री अर्हद्गीता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org