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________________ आकारात् उपवर्गस्य स्थानीयो ज्याससंग्रही । अपवर्गस्तदोंकारे बिन्दुः सिद्धोऽपि तत् स्थितः ॥१४॥ अन्वय-आकारात् उपवर्गस्य स्थानीय (ॐ) ज्याससंग्रही। तदा ओंकारे अपवर्ग: तत् स्थितः बिन्दुः अपि सिद्धः ॥ १४ ॥ अर्थ-अकार से उकार तक जो ॐ बनता है वह गौरव का संग्रह करने वाला है इसीलिए ओंकार में अपवर्ग (मोक्ष) स्थित है और उस पर स्थित बिन्दु सिद्ध रूप है। अ इत्यात्मा तद्वितर्के उमेमोक्षः शिवस्ततः । अनाकारबिन्दुरूपः ॐकारस्तन्मयो मतः ॥१५॥ अन्वय-अ इति आत्मा (अतति इति आत्मा) तद्वितर्के उः मे मोक्षः शिवः ततः बिन्दुरूपः अनाकारः ॐकार तन्मय मतः ॥१५॥ अर्थ-अ से आत्मा उ से उसका चिन्तन और म में कल्याणकारी मोक्ष पद निहित है। बिन्दुस्वरूप निराकार सूचक है। ॐकार आत्मस्वरूप ही है। अतिभक्ति विष्णुरूपात उपलब्धिरुकारगा। मे महाव्रतमोंकार-स्त्रियोगे ब्रह्मकेवलम् ॥ १६ ॥ अन्वय-अति विष्णुरूपात् भक्ति उकारगा उपलब्धि मे महाव्रतं त्रियोगे ओंकारः ब्रह्मकेवलम् ।। १६ ।। अर्थ-अ में सर्व व्यापकता ( वेवेष्टि इति विष्णु ) होने के कारण भक्ति है उकार में उपलब्धि है। म में पंच महाव्रत हैं। इस प्रकार इन तीनों के योग से ॐ कार बनता है जो ब्रह्म स्वरूप है। अतिविष्णुरुतिब्रह्मा मे शिवस्तत्त्रयीमयः। 1 ॐकारः परमं ब्रह्म ध्येयो गेयस्तदर्थिभिः ॥१७॥ २३२ अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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