SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चविंशोऽध्यायः श्री गौतम उवाच ऐन्द्रस्वरूपं कैवल्ये संस्कारात् कर्मण्यात्मनाम् । कैवल्यसिद्धये तस्मात् किं कर्म प्रथमं मतम् ॥ १॥ अन्वय-कैवल्ये कर्मणि आत्मनां संस्कारात् ऐन्द्रस्वरूपं (अस्ति) तस्मात् कैवल्यसिद्धये प्रथमं कर्म किं मतम् ॥ १॥ अर्थ-श्री गौतम ने प्रभू से पूछा कि हे भगवान् कैवल्य प्राप्ति में आत्मा के संस्कार से आत्मस्वरूप सिद्ध होता है तो फिर कैवल्य सिद्धि के लिए सर्व प्रथम कौन सा कर्म करना चाहिए। ___ श्री भगवानुवाच रुचिं नवनवैर्वाक्यैः शास्त्रैर्वा जनयेद्गरुः । ततो भव्यस्य शुश्रूषाश्रवणाद्या धियो गुणाः ॥ २॥ अन्वय-गुरुः नव नवैः वाक्यैः वा शास्त्रैः भव्यस्य रूचिं जनयेत् ततः शुश्रूषा श्रवणाद्याः गुणाः धियः (भवन्ति ) ॥२॥ अर्थ-भगवान ने कहा हे गौतम ! गुरु नये नये वाक्यों अथवा शास्त्रों से आत्मार्थी की रूचि उत्पन्न करता है इसलिए महान् गुरु की सेवा से श्रवण मनन निदिध्यासन आदि बुद्धि के गुणों का विकास होता है। शास्त्रादिव्यवहाराय संज्ञापूर्वं यथोच्यते। तथा नाम पुरः श्राव्यं देवस्य गुरूधर्मयोः ॥३॥ अन्वय-शास्त्रादिव्यवहाराय संशापूर्व यथा उच्यते तथा देवस्य गुरुधर्मयोः नाम पुरः श्राव्यम् ॥३॥ अईद्गीता २२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy