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आत्मत्वजातिमानात्मा सोऽवस्थाभेदतो द्विधा । क्षेत्रज्ञाः (ज्ञः) परमात्मा च न भिन्नं द्रव्यमीश्वरः ॥७॥
अन्वय-आत्मा आत्मत्वजातिमान् स अवस्थाभेदतः द्विधा। क्षेत्रमाः परमात्मा च। ईश्वरः द्रव्यं भिन्नं न ॥७॥
अर्थ-आत्मत्व की जाति से आत्मा एक है किंतु अपने अवस्था भेद से दो प्रकार की है क्षेत्रज्ञ और परमात्मा। साकार और निराकार । परन्तु (रूपी हो या अरूपी) ईश्वर स्वरुपी द्रव्य भिन्न नहीं है।
न्यायशास्त्रमिति प्राह लोके प्रामाणिकं हि तत् । जीवः शिवः शिवो जीव इति स्मार्तानुशासनात् ॥ ८॥
अन्वय-न्यायशास्त्रं इति प्राह तत् हि लोके प्रामाणिकं भवति जीवः शिवः शिवः जीवः इति स्मार्तानुशासनात् ॥८॥
अर्थ-न्याय शास्त्र जो कहता है वह संसार में प्रमाणभूत माना जाता है अतः स्मृतियों के मतानुसार जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है ।
तर्कशक्ति के प्रयोग से प्रमाण को दिखाना वह न्याय शास्त्र का हेतु है। स्मृतियो में जीव और शिव अर्थात् आत्मा और परमात्मा का अभेद न्याय के वचनों से प्रमाणित किया गया है।
चतुर्विंशतिसंख्यादिजिने सिद्धे प्रतीयते । सा विवक्षितकालेन वस्तुतस्तदनन्तता ॥ ९ ॥
अन्वय-सिद्धे जिने चतुर्विंशति संख्यादि प्रतीयते सा विवक्षिता कालेन वस्तुतः तत् अनन्तता ॥ ९ ॥
अर्थ-सिद्ध और जिनों में जो चौबीस की संख्या दिखाई देती है वह विवक्षित काल की अपेक्षा से है वस्तुतः तो वे अनन्त हैं।
द्वाविंशतितमोऽध्यायः
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