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एकविंशतितमोऽध्यायः
श्री गौतम उवाच
ऐश्वयं परमं यस्य शिवः सिद्धिप्रसाधनम् । सोऽर्हन् ब्रह्मार्यमा विष्णुः शम्भुर्बुद्धोऽथवा परः ॥ १॥
अन्वय-यस्य परमं ऐश्वर्य शिवः सिद्धिप्रसाधनम् सः अर्हन् ब्रह्मा अर्यमा विष्णुः शम्भुः बुद्ध अथवा परः ॥१॥
अर्थ-श्री गौतम ने भगवान महावीर से पूछा कि जिसका परम ऐश्वर्य मोक्ष सुख की सिद्धियों का साधन है वह अर्हत् ब्रह्मा सूर्य, विष्णु, शिव, बुद्ध अथवा और कोई है ?
श्री भगवानुवाच लोकालोकमयो ब्रह्म-रूपसत्त्वनिधिविधिः । सर्वभूतमयीभूतस्तद् ज्ञाता परमेश्वरः ॥ २ ॥
अन्वय-लोकालोकमयः ब्रह्मरूपसत्त्वनिधिः विधिः। सर्वभूतमयीभूतः तद्शाता परमेश्वरः ॥२॥
अर्थ-श्री भगवान ने कहा कि लोकालोकमय जो ब्रह्म है उन्हें ही रूप और सत्ता का भण्डार कहते हैं वह सर्व जीव स्वरूप है उसका ज्ञाता ही परमेश्वर है अर्थात् वह अझेय है ।
स्वरूपस्य स्वयं कर्ता जगद्भाव्यस्य शाश्वतः । एकोऽनेकविवर्तात्मा सर्वगः स्ववशः परम् ॥ ३॥
अन्वय-जगद्भाव्यस्य स्वरूपस्य स्वयं शाश्वतः कर्ता एकः अनेकः विवर्तात्मा, सर्वगः स्ववशः परम् ॥३॥ एकविंशतितमोऽध्यायः
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