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________________ अन्वय-अकारतः अर्हन् वाचयः अस्ति इन्द्रकृतां अर्ची अर्हति । ड प्रत्ययात् नामसिद्धेः शुद्ध केवलरूपभाक् ।। १३॥ अर्थ-अ ऊ म् का अ वर्ण अर्हन् का वाच्य है यह पद इन्द्र द्वारा की गई पूजार्चा के योग्य है। ड प्रत्यय से अर्हन् की नाम सिद्धि से . शुद्ध स्वरूप एवं चैतन्य गुणों का निर्देश होता है। उ इत्युच्चैगतो मोक्षे दी|कारस्तु रक्षणे । अस्य योगादुना सिद्धे सन्ध्यक्षरे तृतीयके ॥ १४ ॥ अन्वय-उ इति उच्चैः मोक्षे गती दीर्घ उकारस्तु रक्षणे अस्य उना योगात् सिद्धः सन्ध्यक्षरे तृतीयके ॥१४॥ अर्थ-उ श्रेष्ठ मोक्ष गति का वाचक है और दीर्घ ऊकार रक्षा करने में समर्थ है अ का उ से मेल होने पर तीसरा सन्ध्यक्षर ओ सिद्ध होता है। अर्धचन्द्राकृतिः सिद्ध शिलाबिन्दुस्तदूर्ध्वगः । सिद्धेऽनाकारतो ख्यायी जगन्मूर्धनि संस्थिते ॥ १५ ॥ अन्वय-अर्धचन्द्राकृतिः सिद्धशिला, बिन्दुः तत् उर्ध्वगः । जगन्मूर्ध्नि संस्थिते सिद्धे अनाकारतः ख्यायी ॥ १५॥ अर्थ-ॐ की अर्द्ध चन्द्र की आकृति सिद्ध शिला है एवं उसके ऊपर रहा हुआ बिन्दु जगत् के मस्तक पर स्थित सिद्ध भगवान के निराकार रूप को बताने वाला प्रतीक है। ॐकाररूपात्साकारोऽनाकारो बिन्दुरूपतः । सिद्धोऽनाकार साकारो-पयोगादुभयात्मकः ॥ १६ ॥ अन्वय-सिद्धः ॐकार रूपात् साकारः बिन्दुरूपतः अनाकार: साकारोपयोगात् उभयात्मकः ॥१६॥ विशतितमोऽध्यायः १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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