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अर्थ-(और यह समकिती जीव) मिथ्यात्व अविरति प्रमाद आदि के त्याग से तथा क्रमशः मन के कषायों पर विजय प्राप्त करता हुआ (मनवचन काययोग का) रोध करता हुआ (अंतिम समय पर) शिवपद का
अधिकारी बन जाता है। प्रारब्धसे जीव गुणस्थानक में प्रवेश करता है किंतु सम्यक्त्व प्राप्त जीव की आध्यात्मिक उन्नति स्वपुरुषार्थ से होती है ।
भोगासक्ते ह्यधःपातो-ऽभ्युदग्रस्तूर्ध्वरेतसः। पुद्गलानामधोगत्या जीवस्योचैरयं तथा ॥ १७ ॥
अन्वय-पुद्गलानां अधोगत्या भोगासक्ते हि अधः पातः तथ. उर्ध्वरेतसः जीवस्य तु अयं उच्चैः अभ्युदयः ।। १७ ।।
___ अर्थ-(कर्म) पुद्गल अधोगामी होने से भोगों में आसक्त जीव अधोगति का अधिकारी होता है वैसे ही उर्ध्व रेतस् तथा ब्रह्मचर्याचरण तत्पर (लघुकर्मी) जीव की उर्ध्वगति या अभ्युदय होता है। अर्थात् जीव की आंतरिक योग्यता अनुसार उनका जीवन व्यवहार और अधोगति या उर्ध्वगति होती है।
भरताद्या महारंभे-ऽप्यापुः केवलमुज्ज्वलम् । माहात्म्यं तदपि स्पष्टं वैराग्यस्य विमृश्यताम् ॥ १८ ॥
अन्वय-महारंभे अपि भरताद्या उज्ज्वलं केवलं आपुः। तदपि वैराग्यस्य स्पष्टं माहात्म्यं विमृश्यताम् ॥ १८ ॥
अर्थ-भरत आदि राजाओं ने महान् आरम्भ समारंभ करते हुए भी उज्ज्वल केवल ज्ञान को प्राप्त किया अतः वैराग्य का कितना स्पष्ट महत्व है इस पर विचार करो।
विवेचन-आरंभ समारंभ से दोषयुक्त जीवन व्यवहार होते हुए भी महा पुरुष स्वयं का कल्याण करने में सफल हुए क्योंकि हृदय में भोग के प्रति रुचि नहीं थी।
अहंद्गीता
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