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उत्कृष्ट आचरण का स्वरूप
[ अट्ठारहवें अध्याय में सत्रहवें अध्याय का ही विवेचन चल रहा है । यह विवेचन भी क्रिया-विषयक ही है । मुक्ति के लिए केवल क्रिया अथवा केवल ज्ञान समर्थ नहीं है । विचक्षण पुरुषों ने ज्ञान एवं क्रिया के समन्वित आचार से क्षण मात्र में मोक्ष प्राप्त किया है आर्त एवं रौद्र ध्यानों का निवारण कर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान के अभ्यास के लिए यम-नियमादि पाँच प्रकार के योगाचरण को करना चाहिए । धर्म क्रियाओं का महात्म्य समझना आवश्यक है क्योंकि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से आचारों में विभिन्नता दिखाई देती है और शंका होती है कि करणीय क्या है और क्या नही ? परन्तु जिस आचार से राग-द्वेष का क्षय हो एवं शुद्ध केवलज्ञान प्रकटहो वही आचार प्रमाणभूत है । ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की साधना के लिए संवर में स्थित होना चाहिए। जिसका अन्तःकरण पवित्र है वह व्यक्ति स्वयं शिव रूप होता है । और उसका आचार अनुकरणीय ही होता है। आचार शुद्धि के लिये साधक को मिथ्यात्व और अविरती का त्याग और कायों पर विजय प्राप्त करना होता है। आचरण के प्रभाव से भोगी का अधःपतन और उर्ध्वरेतस् महात्मा की उर्ध्वगति होती है । मन वचन और काया से विषयानंद का त्याग करनेवाला ही मोक्षपद का अधिकारी होता है । अतः सम्यग्ज्ञानी धर्म आचरण से उर्ध्वगति करता है । ]
अष्टादशोऽध्यायः
अष्टादशोऽध्यायः
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