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द्वारा ज्योतिषी तथा वैद्य, भूत भावी एवं वर्तमान को जान लेते हैं, उसे मन से कैसे जाना जाय ?
"ऐन्द्रस्वरूपं नाडिभिज्योतिर्जा वा भिषग्वरः।
भूतं भाविभवद्वेत्ति ज्ञेयं तन्मनसा कथम् ।। १ ।।" पन्द्रहवे अध्याय का प्रश्न है कि--
" किं तत्त्वं विदुषांज्ञेयं साधनं शिवसम्पदः" तो सोलहवे में बड़ी भारी समस्या उपस्थित है कि संसार में वस्तुओं का नाना अर्थक्रियाकारी प्रपंच है, उनमें कैसे एकता प्रतिपादित की जाए।
__ सत्रहवे अध्याय से छत्तीसवे अध्याय तक का समावेश कर्मकाण्ड विषयान्तर्गत किया गया है । सत्रहवे अध्याय का प्रश्न क्रिया विषयक ही है " किं विधेयमावधेयम् वा" क्या करगीय है तथा क्या नहीं करने योग्य ? क्योंकि संसार को " उभयीगति" है।
अठारहवे अध्याय में यही विवेचन चलता है पर उन्नीसवे अध्याय का प्रश्न भिन्न प्रकार का है क्योंकि अब तक गौतम स्वामी संसार के नानार्थ प्रपंच को समझ चुके हैं और उनकी समस्या है परमतत्त्व का प्रकाशन । भगवान् ने एक छोटे से श्लोक द्वारा पहले परिभाषा देते हुए उसकी शंका का समाधान प्रारंभ किया
"चिदानन्दमयं ज्योतिस्तत्वंस्पष्टं तपोवलात् ।
जगत्प्रकाशकं मिथ्यामोहध्वान्तविनाशकम्।। २॥"
चिदानन्द मय ज्योति ही तत्त्व है जो तपोबल से स्पष्ट होती है। यह तत्त्व जात् का प्रकाशक है एवं मिथ्या मोह के अन्धकार का नाश करने वाला है। यहाँ से नव तत्त्वों का विवेचन आरंभ होता है । भगवान् ने समझाया कि तत्त्व का श्रवण, मनन एवं साक्षात्करण यदि भावनापूर्वक किया जाये तो जीव माया से मुक्त हो कर परमेश्वर रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। आत्मा से परमात्मा बनने का कितना सरल उपाय है
"श्रोतव्यश्चापि मंतव्य साक्षात्कार्यश्च भावनैः।
जीवो मायाविनिमुक्तः स एप परमेश्वरः ॥ ११ ॥"
चूंकि विषय कर्मकाण्ड का चल रहा है अतः उपलब्धि का तरीका इन अध्यायों में बताया गया है। बीसवे अध्याय का प्रश्न है परमेश्वर कैसे हैं जिनकी भक्ति करता हुआ यह आत्मा शिवसंपदा को प्राप्त हो जाय ? यहाँ मनुष्य जन्म की
महत्ता एवं ज्ञान को सर्वोत्तम बताया गया है कि दूध में सार धी है, फूल में परिमल, ' संसार में चैतन्य साररूप है और चैतन्य में भी सर्वोत्तम है कैवल्यज्ञान--
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