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होता है। अर्थात् असंख्य और अखंड आकाश काल के भेद से गत वर्तमान और अनागत के रुप में संख्य होता है तथा धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय व्याप्त लोकाकाश और अन्य अलोकाकाश वैसे दो प्रकार में विभाजित भी होता है।
विवेचन-एकतादर्शी ब्रह्मदर्शन से नित्य का बोध करे या पृथकत्वदर्शी सद्भाव को देखकर अनित्य का बोध करके हेतु एक है। वह है मोह नाश।
निश्चयव्यवहाराभ्यां द्वेधाऽनेहा अपि स्मृतः। लोको जीवादजीवाच्चा-लोकोऽसंख्योऽप्यनन्तकः ॥ १३ ॥
अन्वय-निश्चय व्यवहाराभ्यां अनेहा अपि द्वेधा स्मृतः। लोकः जीवात् अजीवात् च असंख्य अनन्तकः अलोकः अपि (असंख्य)॥१३॥
अर्थ-व्यवहार एवं निश्चय नय से अलोक भी दो प्रकार का कहा जाता है। जीव और अजीव की उपस्थिति के कारण लोक असंख्य है। अतः वस्तुतः अनन्त अलोक भी लोक के एक भाग होनेसे असंख्य हो जाता है। (किंचित् अभिन्न होने से) अनन्तअलोक भी असंख्य कहा गया है।
पोढा हानिर्विवृद्धिभ्याम लोकस्थं वियद् द्विधा । धर्मोऽधर्मश्च पूर्णोऽन्यः सूक्ष्मोऽनणुश्च पुद्गलः ॥ १४ ॥
अन्वय-पोढा हानिविवृद्धिभ्यां अलोकस्थं वियद् द्विधा धर्म . अधर्मः च पूर्णः अन्य सूक्ष्मः अनणु पुद्गलः च ॥१४॥
अर्थ-छः प्रकार की हानि और वृद्धि से संपूर्ण लोकाकाश दो प्रकार का है। धर्म और अधर्म, पूर्ण और सूक्ष्म अनणु और पुद्गल रूप ।
जीवोऽपि सिद्धः संसारी सिद्धो ज्ञानी च दर्शनी । षोढा हीनोऽथवा वृद्धः सान्तरो वाप्यनन्तरः ॥ १५ ॥
अन्वय-जीवः अपि सिद्धः संसारी। सिद्धः षोढा शानी च दर्शनी हीनः अथवा वृद्धः सान्तरः वा अनन्तरः अपि ॥१५॥ सप्तदशोऽध्यायः
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