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अन्वय-प्राणैः शिवः जीवः जीवः अभवत् दशप्राणैः अभावेन जीवः अपि पुद्गलः स्थावरे जीवता क्वचित् ॥ १३ ॥
अर्थ - प्राणों से शिवजीव (ब्रह्म) है और दशप्राणों के अभाव में जीव भी पुद्गल ही होता है । स्थावर में भी कहीं जीवत्व होता है ? 1 अर्थात् जड़ में चैतन्य नहीं होता फिर मी प्राणों के अनुसंधान से शिव में जीवत्व तथा पुद्गल में चैतन्य समाविष्ट होता है 1
जीवो ज्ञानसदेशस्य प्राधान्यात्सत्त्वानामभृत् । अजीवः सत्त्वयोगेऽपि तन्निषेधादचेतनः ॥ १४ ॥
अन्वय-ज्ञानसदंशस्य प्राधान्यात् जीवः सत्त्वनामभृत्। सत्त्वयोगेऽपि तत् निषेधात् अजीवः अचेतनः ॥ १४ ॥
अर्थ - ज्ञान रूपी सत् तत्त्व की प्रधानता से जीव सत्त्व नाम धारण करता है । सत्त्व होने पर भी उसी ज्ञान चैतन्य के अभाव में वह अजीव अचेतन कहलाता है ।
उपादानं चेतनायाः जीवोऽजीवो निमित्तकम् । तेनाऽशुद्धाशनात्साधु - श्रौर्यचर्यापरोऽभवत् ॥
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अन्वय- चेतनाया: उपादानं जीवः अजीवः निमित्तकम् तेन अशुद्धाशनात् साधुः चौर्यचर्या परः अभवत् ॥ १५ ॥
अर्थ - जीव और अजीव में ज्ञानलक्षणयुक्त चेतना उपादान कारण है और जीव और अजीव निमित्त कारण हैं अर्थात् प्राण आने पर जीव व प्राण जाने पर अजीव । उसी ज्ञान चेतना के अभाव में अशुद्ध ( अभक्ष्य ) भोजन करने के कारण साधु भी चोरी करने के काम में लग गया । अर्थात् चेतना के अभाव में साधु भी असाधु बन गया ।
रूपं स्यानीलपीतादि तद्योगे रूपवानणु । अणुसंबंधतो जीवोऽप्ययं रूपी कथंचन ॥
१५ ॥
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षोडशोऽध्यायः
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