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________________ छठे अध्याय में ज्योतिष शास्त्र, मंत्र शास्त्र, आयुर्वेद तथा शकुन शास्त्र के प्रमाणों से धर्म की प्रधानता प्रतिपादित की गई है। धर्म पुरुष का मुख ज्ञान है, हृदय उसकी सम्यक् श्रद्धा है, चारित्र उसके. हाथ पाँव हैं । भुवनत्रय धर्ममय है। ज्ञान ऊर्ध्व लोक में स्थित है, दर्शन'अधोलोक में तथा चारित्र मध्य लोक में "उर्ध्वलोके स्थितं ज्ञानमधोलोके चदर्शनम् । चारित्रं मध्यलोकस्थं धर्मस्थं भुवनत्रयम् ॥ १९॥" आयुर्वेदानुसार धर्म को अमृतमय किस प्रकार बताया गया है-ज्ञान वात दोष को जीतता है, दर्शन पित्त दोष का निवारण करता है तथा चारित्र कफ दोष का नाशक है । इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय धर्म अमृत कल्प है। " वातं विजयते ज्ञानं दर्शनं पित्तवारणम् । कफनाशाय चरणं धर्मस्तेनामृतायते ।। १५॥" उपाध्याय जी ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र को वात, कफ, पित्त के निवारक कहा है क्योंकि ज्ञान का स्वरूप तेजोमय लघु रूप है । लघुता से वातरोग का नाश हो जाता है । पित्त प्रकृति वाले व्याक्ति में कषायों का वास रहता है । सम्यक् दर्शन से कषायों का शमन होता है अर्थात् कषायमूलक पित्त दोष का नाश होता है । चारित्र क्रियात्मक प्रवृति है जिससे कफ प्रवृति का नाश होता है । इस प्रकार धर्म अमृत कल्प है। सातवे अध्याय में ज्योतिष शास्त्र की भाँति ज्ञानमय धर्म मार्ग का विवेचन किया गया है। जैसा ज्योतिचक्र आकाश में है वैसे ही ज्ञानचक्र हृदय में निवास करता है। धर्म क्या है, इसका एक रूप देखिए ज्ञान दूध है, श्रद्धा दही है एवं चारित्र घी है । अनन्त वीर्यत्व प्रदान करने वाला यह धर्म-वृत सेवन करने योग्य है "ज्ञानं दुग्धं दधि श्रद्धा घृतंतच्चरणस्मृतम् । गुरोर्गव्यमिदंधय॑ धार्यंचानन्तवीर्यदम् ॥ ५॥" इसी अध्याय में कहा गया है कि जिसका मन धर्म के वश में है उसके वश में तीनों लोक दिखाई देते हैं। आठवे अध्याय में धर्म को आत्मा का यान बताया गया है जिसमें ज्ञानी मार्ग प्रकाशक चारित्री उसका नियामक तथा दर्शनी उसमें बैठा मुसाफिर है । अर्थात् ज्ञानियों ने मार्ग बताया है, चारित्र धारी सुसाधुओं ने उस मार्ग का नियमन किया है एवं श्रद्धावान श्रावकों को भव पार उतारा है । जैन धर्मानुसार देवगुरू के स्वरूप को भी इसी अध्याय में बताया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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