SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्ति धर्मी कहा जाता है। समान अर्थ सूचक शब्दों का भेद दिखाना समभिरुढ़ नयका कार्य है। मुनिर्मुनिक्रियाविष्टस्तन्मुक्तो न मुनिः पुनः । एवम्भूतनयादेवं धर्मी सिद्धोऽस्ति केवली ॥ १० ॥ अन्वय-मुनिक्रियाविष्टः मुनिः तन्मुक्तः पुनः न मुनिः। एवं एवम्भूतनयात् केवली सिद्धः धर्मी अस्ति ॥ १० ॥ अर्थ-(अर्थ को स्पष्ट करते हुए) समभिरुढ़ नय से मुनि के आचरण में लगा हुआ मुनि ही वास्तव में मुनि है उन क्रियाओं से मुक्त सर्वविरति साधु मुनि नहीं है, पर तत्त्व के शुद्ध स्वरुप को ग्रहण करनेवाले एवंभूत नय से तो केवली और सिद्ध ही धर्मी हैं क्योंकि पूर्णधर्म का स्वरूप उनमें ही प्रतिष्ठित होता है। धर्मी जीव समग्रोऽपि ज्ञानवान् चेतनारतः। एकेन्द्रियाणामज्ञानमृजुसूत्रनयार्पणात् ॥ ११ ॥ अन्वय-चेतनारतः शानवान् समग्रः जीवः अपि धर्मी ऋजुसूत्रनयार्पणात् एकेन्द्रियाणां अज्ञानम् ॥ ११॥ अर्थ-सामान्य द्रव्यास्तिक नय से तो चेतनाशील एवं ज्ञानवान् जीव मात्र धर्मी है पर ऋजुसूत्र नय से एकेन्द्रिय जीवों को अज्ञानी माना जाता है अतः सामान्य नय से तो वे भी ज्ञानी है पर विशेष नय से वे ज्ञानरहित ( संज्ञारहित ) हैं। विवेचन-धर्मी और ज्ञानी के अलग उदाहरणों से चर्चा करने का हेतु नयवाद का स्वरूप प्रकट करना है। वस्तुस्मृत्या भवेद्द्वानी सोऽज्ञानी विस्मृतेर्मतः। नैगमात् शिशुरज्ञानी व्यवहारदृशोरसात् ॥ १२ ॥ अन्वय-गमात् वस्तुस्मृत्या ज्ञानी भवेत् सः विस्मृतेः अज्ञानी मतः। शिशुः व्यवहारदृशः रसात् अशानी॥१२।। अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy