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दशमोऽध्यायः
सप्तनय से धर्मप्रकाश
[एकत्व की भावना से नाना नाना प्रकार से संसार को देखना चाहिए किन्तु विषमता में समता को कैसे देखेंगे ? समता धर्म का मूल त्याज्य (हेय) ग्राह्य (उपादेय) का विवेक है। चित्त से राग-द्वेष दूर होने से विवेकज्ञान का उदय होता है ; वह क्रमशः केवलज्ञान में पूर्ण होता है। केवली ही पूर्णतया जानते हैं वैसे अनंत-धर्मी तत्त्व को हम कैसे समझे ? मनुष्य का विचार व्यवस्थित अथवा सम्यक् हो तो ज्ञान सही होता है। इसीलिए विचारों का नयवाद में व्यवस्थित करके सप्त नयोंका निरूपण किया गया है। वस्तु में विरोधाभासी स्वभाव को दिखा कर अंत में धर्म को केवलीगम्य या गीतार्थमुनि गम्य कहा गया है। जो बुद्धि के परे है, वह श्रद्धा का विषय है। वीतराग प्रभु में श्रद्धा से ही हम सही मार्ग पर चल सकते हैं ; यही आचरणीय कल्याण मार्ग है।
दशमोऽध्यायः
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