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अन्वय-पात्रे अवतीर्णः देवादिः तन्मुखेन प्रजल्पति पात्रभक्त्या एव तद्भक्तिः तथा साधोः धर्मस्थितिः ॥ १८॥ ..
अर्थ-जिस प्रकार किसी पिण्ड में अवतरित देवता आदि उसी मुख से बोलते हैं एवं उस पात्र (पिण्ड) की भक्ति से ही उस देवता की भक्ति की जाती है वैसे ही साधु में अवतरित धर्म उनके मुख से ही बोलता है वैसे ही उनकी भक्ति से भी धर्म की आराधना होगी अर्थात् धर्म और धर्मवान में भेद नहीं है। यह धर्म का स्वरुप आगे दिखाया है।
तुलान्यायेन समता धर्मः सर्वार्थसिद्धिदः। रागो द्वेषोऽप्यऽधर्माङ्गं सारमेतत्सतां गिरः ॥ १९ ॥
अन्वय-तुलान्यायेन समता धर्मः सर्वार्थसिद्धिदः। रागः द्वेषः अपि अधर्माङ्गं एतत् सारं सतां गिरः ॥१९॥
अर्थ-(तुलाके दोनो पलड़े सम होते हैं उस तरह ) तुलान्याय से समता परिणाम को धारण करना चाहिए यही समत्व धर्म सभी प्रयोजनों की सिद्धि देने वाला है। राग और द्वेष के भाव तुलान्याय नहीं कर सकते अतः वे धर्म के अंग नहीं है यह सज्जनों की वाणी का सार है अर्थात् राग और द्वेष का अभाव ही समता धर्म है ॥ १९॥
द्वेषादपि च दुर्जेयो रागः संसारकारणम् । तज्जयाद्वीतरागोऽयं देवानामधिदैवतम् ॥ २० ॥
अन्वय-द्वेषादपि च दुर्जेयः रागः संसार कारणम् । तज्जयात् अयं वीतरागः देवानां अधिदैवतम् (प्राप्नोति) ॥२०॥
अर्थ-(राग और द्वेषका भेद दिखाते कहा है कि) राग संसार का मूल है एवं यह द्वेष से भी ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि द्वेष को तो जीता जा सकता है पर राग को जीता नहीं जा सकता है। उसी राग को
नबमोऽध्यायः
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