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दूसरे किसी स्वामिकी तरह उसे उपभोग करने वाले (सद्व्यय करनेवाले) के पास चली जाती है।
ज्ञाने प्रधानता पुंसः भोगे नायास्ततः सुते । पाठः प्रियः कुमार्यास्तु भ्रमिक्रीड़ा मनः प्रियाः ॥९॥
अन्वय-पुंसः ज्ञाने नार्याः भोगे प्रधानता सुते पाठः प्रिय: कुमार्याः तु भ्रमिक्रीड़ा मनः प्रियाः ॥९॥
___ अर्थ-(यहाँ मानव सृष्टि की भिन्न भिन्न रूचि का वर्णन कर रहे हैं कि) पुरुष में ज्ञान की एवं स्त्री में भोग की प्रधानता है। पुत्र को पाठ प्यारा होता है तो कुमारी का गोल घूमने (गरबा ) के खेलों में मन रमता है अर्थात् ज्ञानी को पुरुष स्वभावी और भोगी को स्त्री स्वभावी कहकर विरोध का रहस्य प्रकट किया है। वस्तुत: विरोध श्री और सरस्वती में नहीं है।
ज्ञानधर्मः पौरुषांकं त्यजेद्यस्तु कदापि न । लक्ष्मी गप्रिया नैतं चेतसो नाम मुञ्चति ॥ १० ॥
अन्वय-यः तु पौरुषात ज्ञानधर्मः कदापि न त्यजेत्। एतं भोगप्रिया लक्ष्मीः चेतसो नाम न मुञ्चति ॥ १०॥
अर्थ-जो साधक पौरुष लक्षण ज्ञान धर्म को कभी भी नहीं छोड़ता है उसको भोग प्रिया लक्ष्मी कभी भी अपने हृदय से नहीं निकालती है।
पौरुषं भोगलुब्धेन त्यक्तं धर्मात्मकं धिया। स्त्रीमयान्मूर्खतस्तस्माल्लक्ष्मी राऽभिसर्पति ॥ ११ ॥
अन्वय-भोगलुब्धेन धिया धर्मात्मकं पौरुषं त्यक्तं स्त्रीमयात् तस्मात् मूर्खतः लक्ष्मीः दूराऽभिसर्पति ॥ ११ ॥
अर्थ-जिस पुरुष ने भोग में लुब्ध बुद्धि से धर्म रूपी पौरुष को त्याग दिया है स्त्रीत्व से युक्त उस मूर्ख से लक्ष्मी सदैव दूर रहती है अर्थात् स्त्री पौरुष प्रिय होती है और लक्ष्मी भी धर्मनिष्ठ व्यक्ति के पास ही जाती है।
अर्हद्गीता
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