________________
[२०]
માટે પ્રક્રિયાની સમાપ્તિ પણ ભક્તિમાં જ કરવી પડે છે. આ કારણે જ પ્રસ્તુત સ્તંત્રની પાંચમી ગાથામાં એધિરૂપ ભક્તિ ભવાભવ મળે તેવી યાચના કરવી પડી છે. આધ્યાંત્મિક અને પારમાર્થિક સાધનામાં આ એક વિશિષ્ટતા છે.
ભક્તિ એ શરૂઆતમાં દર્શાવ્યા પ્રમાણે સમ્યગ્દર્શનના વિશિષ્ટ પ્રકાર છે અને તે જ તરણેાપાય છે. ભક્તિથી મદદ મળે છે. કારણ કે આપણા પ્રયત્નની પણ હદ હોય છે. તે પછી બીજે કયાંયથી મદદ મળવી જ જોઇએ અને તેની યાચના યાવિધિ કરવામાં આવે તે બહારથી આવી મદદ મળવાની પ્રક્રિયાને ભક્તિયેાગની ભાષામાં અનુગ્રહ કહે છે અને દુઃખ, દર્દ વગેરેની શાંતિ માટે મદદ મળવાની પ્રક્રિયાને નિગ્રહુ કહે છે.
મ'ત્રવાદીએ મંત્રયેાગની પ્રક્રિયા માટે તેના સાળ અંગેા
નિયત કરે છે તેમાં
* मन्त्रयोग के ग्रन्थों में निम्नलिखित अङ्ग मुख्य बतलाये हैं ।
6
भवन्ति मन्त्रयोगस्य षोडशाङ्गानि निश्चितम् । यथा सुधांशोर्जायन्ते कलाः षोढश शोभनाः ॥
Jain Education International
भक्ति: शुद्धिश्वासनं च पञ्चाङ्गस्यापि सेवनम् । आचारधारणे दिव्यदेशसेवनमित्यपि ॥
'चन्द्रकी सोलह कलाओंकी तरह मन्त्रयोग भी सोलह अङगोसे पूर्ण हैं । ये सोलह अङ्ग इस प्रकार हैंभक्ति, शुद्धि, आसन, पञ्चाङ्गसेवन, आचार, धारणा, दिव्यदेशसेवन, प्राणकिया, मुद्रा, तर्पण, हवन, बलि, योग, जप, ध्यान और समाधि ।' नाना शास्त्रो में इन सोलह अगो का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । भक्तिका विस्तार तो सभी भक्ति शास्त्रो में पाया जाता है । शुद्धिके अनेक भेद हैं । यथा - किस दिशा में मुख करके साधन करना चाहिये, यह दिक्शुद्धि है; कैसे स्थान में बैठकर साधन करना चाहिये, यह स्थान शुद्धि है; स्नानादि द्वारा शरीरशुद्धि और प्राणायामादि द्वारा मनः शुद्धि होती है । कैसे आसन पर बैठना चाहिये - जैसे कि चैलासन, मृगचर्मासन, कुशासनादि - यह आसनशुद्धि है । अपने इष्टकी गीता, सहस्रनाम, स्तव, कवच और हृदय ये पाँचो पञ्चाङ्ग कहाते हैं । आचार के तन्त्र और पुराणों में अनेक भेद कहे गये हैं । मनको बाहर मूर्ति आदि में लगाने से अथवा शरीर के भीतर स्थान विशेषों में मनके स्थिर रखने को धारणा कहते हैं। जिन सोलह प्रकार के स्थानों में पीठ बनाकर पूजा की जाती है, उनको दिव्यदेश कहते है । यथा मूर्धास्थान, हृदयस्थान, नाभिस्थान, घट, पट, पाषाणादिकी मूर्तियाँ, स्थण्डिल, यन्त्र आदि । मन्त्रशास्त्र में प्राणायामों के अतिरिक्त शरीर के नाना स्थानों में प्राण को ले जाकर साधन करने की आज्ञा है । ये सब साधन प्राणक्रिया कहलाते हैं । न्यास आदि इसी के अन्तर्गत है । मंत्रयोग में अपने - अपने इष्टदेवको प्रसन्न करनेकी जो चेष्टाएँ है, वे मुद्रा कहाती है; यथा शङ्खमुद्रा योनिमुद्रा आदि । पदार्थविशेष द्वारा इष्टदेवका तोण किया जाता है । अग्निमें आहुति देने को हवन कहते हैं । बलि तीन प्रकारकी होती है-यथा आत्मबलि अहङ्कारादिकी । इन्द्रियोंकी बलि तथा काम-क्रोधादिकी बलि, ये सब अन्तबलि है' । बहिर्बलिमें सात्त्विक बलि फलादिकी... होती है । अन्तर्याग और वहिर्यागभेदसे याग दो प्रकारका होता है । अपने इष्ट के नामके जपको जप कहते हैं । जप भी वाचनिक, उपांशु और मानसिक मेदसे
7
प्राणक्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं बलिः । यागो जपस्तथा ध्यानं समाधिश्चेति षोडश ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org