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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकपदार्थों में मैं और मेरेपन का आग्रह अथवा हठाग्रह जिसने ऐसा वीतराग होता हुआ प्राणो अनुपम तथा अनन्त ज्ञानादि गुणोंको और सम्पत्तिरूप मुक्ति-लक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है । जैसा कि कहा गया है “यदा मोहात्प्रजायेते." ।।
जिस समय तपस्वीको मोहके उदयसे मोहके कारण राग-द्वेष पैदा होने लगें, उस समय शीघ्र ही अपने में स्थित आत्माको समतासे भावना करे, अथवा स्वस्थ आत्माकी भावना भावे, जिससे क्षणभरमें वे राग-द्वेष शान्त हो जावेंगे ।।५१॥
दोहा-इष्टरूप उपदेशको, पढ़े सुबुद्धी भव्य ।
मान अमानमें साम्यता, जिन मनसे कर्तव्य ॥ आग्रह छोड़ स्वग्राममें, वा वनमें सु वसेय ।
उपमा रहित स्वमोक्षश्री, निजकर सहजहि लेय ॥५१॥ आगे इस ग्रन्थके संस्कृतटीकाकार पण्डित आशाधरजी कहते हैं कि
प्रशस्ति : विनयेन्दुमुनेर्वाक्याव्यानुग्रहहेतुना । इष्टोपदेशटीकेयं कृताशाधरधीमता ।।
अर्थ-विनयचन्द्र नामक मुनिके वाक्योंका सहारा लेकर भव्य प्राणियोंके उपकारके लिये मुझ आशाधर पण्डितने यह 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थकी टीकाकी है।
उपशम इव मूर्तः सागरेन्दोमुनीन्द्रादजनि विनयचन्द्रः सच्चकोरैकचन्द्रः।
जगदमृतसगर्भा शास्त्रसंदर्भगर्भाः शुचिचरितवरिष्णोर्यस्य धिन्वन्ति वाचः ॥२॥ अर्थ--सागरचन्द्र नामक मुनीन्द्रसे विनयचन्द्र हुए जो कि उपशमकी (शांतिकी) मानो मूर्ति ही थे तथा सज्जन पुरुषरूपी चकोरोंके लिये चन्द्रमाके समान थे और पवित्र चारित्रवाले जिन मुनिके अमृतमयी तथा जिनमें अनेक शास्त्रोंकी रचनाएँ समाई हुई हैं, ऐसे उनके वचन जगतको तृप्ति व प्रसन्नता करनेवाले हैं । जयन्ति जगतीवन्द्या, श्रीमन्नेमिजिनाइज्रयः। रेणवोऽपि शिरोराज्ञामारोहन्ति यदाश्रिताः ॥३॥
अर्थ-जगद्वंद्य श्रीमान नेमिनाथ जिनभगवान्के चरणकमल जयवन्त रहें, जिनके आश्रयमें रहनेवाली धूलि भी राजाओंके मस्तकपर जा बैठती है ।
. इति श्रीपूज्यपादस्वामिविरचितः इष्टोपदेशः समाप्तः । इस प्रकार श्रीपूज्यपादस्वामोके द्वारा बनाया हुआ ‘इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ समाप्त हुआ।
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