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________________ ४९-५०-५१] इष्टोपदेशः अर्थ-'जीव जुदा है, पुद्गल जुदा है,' बस इतना ही तत्त्वके कथनका सार है, इसीमें सब कुछ आ गया । इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता है, वह सब इसीका विस्तार है। विशदार्थ-'जीव' शरीरादिकसे भिन्न है, 'शरीरादिक' जीवसे भिन्न है' बस इतना ही कहना है कि सत्यार्थ आत्मरूप तत्त्वका सम्पूर्ण रूपसे ग्रहण (निर्णय) हो जाय । और जो कुछ इस तत्त्व-संग्रहके सिवाय भेद-प्रभेद आदिक विस्तारमें सुननेकी रुचि-इच्छा रखनेवाले शिष्योंके लिये आचार्योंने कहा है, वह सब इसोका विस्तार है। इसो एक बातको 'जीव जुदा है और पुद्गल जुदा है' समझाने के लिये ही कहा गया है। जो विस्तार किया है । उसको भी हम श्रद्धाको दृष्टिसे देखते हैं ॥५०॥ दोहा-जीव जुदा पुद्गल जुदा, यही तत्त्वका सार । अन्य कछू व्याख्यान जो, याहीका विस्तार ॥५०॥ आचार्य शास्त्रके अध्ययन करनेका साक्षात् अथवा परम्परासे होनेवाले फलको बतलाते हैंइष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान, मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य । मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा, मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः ॥५१॥ अन्वय-इति इष्टोपदेशं सम्यक् अधीत्य धीमान् भव्यः स्वमतात् मानापमानसमतां वितन्य मुक्ताग्रहः सजने वने वा निवसन् निरुपमा मुक्तिश्रियम् उपयाति । टोका-इत्यनेन प्रकारेण इष्टोपदेशं इष्टं सुखं तत्कारणत्वान्मोक्षस्तदुपायत्वाच्च स्वात्मध्यानम् उपदिश्यते यथावत्प्रतिपाद्यते अनेनास्मिन्निति वा इष्टोपदेशो नाम ग्रन्थस्तं सम्यग्व्यवहारनिश्चयाभ्यामधीत्य पठित्वा चिन्तयित्वा च धीमान हिताहितपरीक्षादक्षो भव्योऽनन्तज्ञानाद्याविर्भावयोग्यो जीवः मक्तिश्रियमनन्तज्ञानादिसंपदं निरुपमामनौपम्यां प्राप्नोति । किं कुर्वन्मुक्ताग्रहो वजितबहिरर्थाभिनिवेशः सन सजने ग्रामादौ वने वापरण्ये विनिवसन् विधिपूर्वकं तिष्ठन् । किं कृत्वा, वितन्य विशेषेण विस्तार्य । कां, माने महत्त्वाधाने अपमाने च महत्त्वखण्डने समतां रागद्वेषयोरभावम् कस्माद्धेतोः, स्वमतात् इष्टोपदेशाध्ययनचिन्तनजनितादात्मज्ञानात् । उक्तं च-॥५१॥ "यदा मोहात्प्रजायेते, रागद्वेषौ तपस्विनः । तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात" ॥३९।। -समाधिशतकम् । अर्थ-इस प्रकार 'इष्टोपदेश' को भली प्रकार पढ़कर-मनन कर हित-अहितको परीक्षा करनेमें दक्ष-निपुण होता हुआ भव्य अपने आत्म-ज्ञानसे मान और अपमानमें समताका विस्तार कर छोड़ दिया है आग्रह जिसने ऐसा होकर नगर अथवा वनमें विधिपूर्वक रहता हुआ उपमा रहित मुक्तिरूपी लक्ष्मीको प्राप्त करता है। विशदार्थ-इष्ट कहते हैं सुखको-मोक्षको और उसके कारणभूत स्वात्मध्यानको । इस इष्टका उपदेश यथावत् प्रतिपादन किया है जिसके द्वारा या जिसमें इसलिये इस ग्रन्थको कहते हैं 'इष्टोपदेश' । इसका भली प्रकार व्यवहार और निश्चयसे पठन एवं चिन्तन करके हित और अहितकी परीक्षा करनेमें चतुर ऐसे भव्य प्राणी, जिससे अनन्त-ज्ञानादिक प्रगट हो सकते हैं इस इष्टोपदेशके अध्ययन-चिन्तन करनेसे उत्पन्न हुए आत्मज्ञानसे मान-अपमानमें राग-द्वेषको न करना रूप समताका प्रसार कर नगर-ग्रामादिकोंमें अथवा निर्जन-वनमें विधि-पूर्वक ठहरते हुए छोड़ दिया है बाहरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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