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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकतथा विज्ञस्तत्त्वज्ञानपरिणतो अजत्वं तत्त्वज्ञानात्परिभ्रंशमपायसहस्रेणापि न गच्छति । तथा चोक्तम्"वजे पतत्यपि भयद्रुतविश्वलोकमुक्ताध्वनि प्रशमिनो न चलन्ति योगात् ।
-पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका, पृ० ३३ बोधप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः, सम्यग्दृशः किमुत शेषपरीषहेषु" ॥६३॥
नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह । अन्य पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पादभ्रंशयोनिमित्तमात्र स्यात्तत्र योग्यताया एव साक्षात्साधकत्वात । कस्याः को यथेत्यत्राह. गतेरित्यादि । अयमों-यथा यगपदभाविगति-परिणामोन्मखानां भावानां स्वकीया गतिशक्तिरेव गतेः साक्षाज्जनिका तद्वैकल्ये तस्याः सहकारिकारणमात्र स्यादेवं प्रकृतेऽपि अतो व्यवहारादेव गुर्वादेः शुश्रुषा प्रतिपत्तव्या। अथाह शिष्यः-अभ्यासः कथमिति । अभ्यासप्रयोगोपायप्रश्नोऽयम् । अभ्यासः कथ्यत इति क्वचित्पाठः । तत्राभ्यासः स्यात् भूयोभूयः प्रवृत्तिलक्षणत्वेन सुप्रसिद्धत्वात्तस्य स्थाननियमादिरूपेणोपदेशः क्रियत इत्यर्थः । एवं संवित्तिरुच्यत इत्युत्तरपातनिकाया अपि व्याख्यानमेतत्पाठापेक्षया द्रष्टव्यम् । तथा च गुरोरेवैते वाक्ये व्याख्येये। शिष्यबोधार्थ गुरुराह-॥३५।।
अर्थ-तत्त्वज्ञानकी उत्पत्तिके अयोग्य अभव्य आदिक जीव, तत्त्वज्ञानको धर्माचार्यादिकोंके हजारों उपदेशोंसे भी नहीं प्राप्त कर सकते हैं। जैसा कि कहा गया है “स्वाभाविकं हि निष्पत्तौ०"
"कोई भी प्रयत्न कार्यकी उत्पत्ति करनेके लिये स्वाभाविक गुणकी अपेक्षा किया करता है । सैकड़ों व्यापारोंसे भी बगुला तोतेकी तरह नहीं पढ़ाया जा सकता है।" __इसी तरह तत्त्वज्ञानी जीव, तत्त्वज्ञानसे छूटकर हजारों उपायोंके द्वारा भी अज्ञत्वको प्राप्त नहीं कर सकता । जैसा कि कहा गया है--"वज्र पतत्यपि०"
"जिसके कारण भयसे घबराई हुई सारी दुनियाँ मार्गको छोड़कर इधर-उधर भटकने लग जाय, ऐसे वज्रके गिरनेपर भी अतुल शांतिसम्पन्न योगिगण योगसे (ध्यानसे) चलायमान नहीं होते । तब ज्ञानरूपी प्रदीपसे जिन्होंने मोहरूपी महान् अन्धकारको नष्ट कर दिया है, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव क्या शेष परीषहोंके आनेपर चलायमान हो जायेंगे ? नहीं, वे कभी भी चलायमान नहीं हो सकते हैं।"
यहाँ शंका यह होती है कि यों तो बाह्य निमित्तोंका निराकरण ही हो जायेगा ? इसके विषयमें जवाब यह है कि अन्य जो गुरु आदिक तथा शत्रु आदिक हैं, वे प्रकृत कार्यके उत्पादनमें तथा विध्वंसनमें सिर्फ निमित्तमात्र हैं। वास्तवमें किसी कार्यके होने व बिगड़ने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती है। जैसे एक साथ गतिरूप परिणामके लिये उन्मुख हुए पदार्थोंमें गतिको साक्षात् पैदा करनेवाली उन पदार्थों की ही गमन करनेकी शक्ति है। क्योंकि यदि पदार्थोंमें गमन करनेकी शक्ति न होवे तो उनमें किसीके द्वारा भी गति नहीं की जा सकती। धर्मास्तिकाय तो गति कराने में सहायकरूप द्रव्यविशेष है। इसलिये वह गतिके लिये सहकारी कारणमात्र हुआ करता है। यही बात प्रकृतमें भा जाननी चाहिये । इसलिये व्यवहारसे हो गुरु आदिकोंको सेवा शुश्रूषा आदि की जानी चाहिये ॥३५॥
१. सामर्थ्यस्य ।
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