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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोकचिन्मात्रमेव स्यात्तदा कीदशः संयोगादिप्रकारः संबन्धो द्रव्यकर्मणा सहात्मनः स्यात येन जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाश निर्जरेति परमार्थतः कथ्यते । अत्राह शिष्यः-तहि कथं अप्रतिपक्षश्च मोक्ष इति भगवन यद्यात्मकर्मबन्धस्ते, द्रव्ययोरध्यात्मयोगेन विश्लेषः क्रियते । तर्हि कथं केनोपायप्रकारेण तयोर्बन्धः परस्परप्रदेशानुप्रवेशलक्षण: संश्लेषः स्यात् । तत्पूर्वकत्वाद्विश्लेषस्य कथं च तत्प्रतिपक्षो बन्धविरोधी मोक्षः सकलकर्मविश्लेषलक्षणो जीवस्य स्यात्तस्यैवानन्तसुखहेतुत्वेन योगिभिः प्रार्थनीयत्वात् । गुरुराह-॥२५॥
अर्थ-"मैं चटाईका बनानेवाला हैं" इस तरह जुदा-जुदा दो पदार्थों में सम्बन्ध हुआ करता है । जहाँ आत्मा ही ध्यान, ध्याता (ध्यान करनेवाला) और ध्येय हो जाता है, वहाँ सम्बन्ध कैसा ?
विशदार्थ-लोकप्रसिद्ध तरीका तो यही है, कि किसी तरह भिन्न (जुदा जुदा) दो पदार्थोंमें सम्बन्ध हुआ करता है। जैसे बाँसको खपच्चियोंसे जलादिकके सम्बन्धसे बननेवाली चटाईका मैं कर्ता हूँ-बनानेवाला हूँ। यहाँ बनानेवाला 'मैं' जुदा हूँ और बननेवाली 'चटाई' जुदी है। तभी उनमें 'कर्तृकर्म' नामका सम्बन्ध हुआ करता है । इस प्रकार सम्बन्ध द्विष्ठ (दो में रहनेवाला) हुआ करता है । इसको बतलाकर, प्रकृतमें वह बात (भिन्नता) बिलकुल भी नहीं है इसको दिखलाते हैं।
"ध्यायते येन, ध्यायति वा यस्तद् ध्यानं, ध्यातिक्रियां प्रति करणं कर्ता च"-जिसके द्वारा ध्यान किया जाय अर्थात् जो ध्यान करने में करण हो–साधन हो उसे ध्यान कहते हैं। तथा जो ध्याता है-ध्यानका कर्ता है, उसे भी ध्यान कहते हैं, जैसा कि कहा भी है-"ध्यायते येन तद् ध्यानं०"
__ "जो ध्यञ् चिन्तायाम्" धातुका व्याप्य हो अर्थात् जो ध्याया जावे, उसे ध्येय कहते हैं । परन्तु जब आत्लाका परमात्माके साथ एकीकरण होनेके समय, आत्मा ही चिन्मात्र हो जाता है, तब संयोगादिक प्रकारोंमेंसे द्रव्यकर्मोंके साथ आत्माका कौनसे प्रकारका सम्बन्ध होगा ? जिससे कि "अध्यात्मयोगसे कर्मोकी शीघ्र निर्जरा हो जाती है" यह बात परमार्थसे कही जावे । भावार्थ यह है कि आत्मासे कर्मोंका सम्बन्ध छूट जाना निर्जरा कहलाती है। परन्तु जब उत्कृष्ट अद्वैत ध्यानावस्थामें किसी भी प्रकार कर्मका सम्बन्ध नहीं, तब छूटना किसका ? इसलिये सिद्धयोगी कहो या गतयोगी अथवा अयोगकेवली कहो, उनमें कर्मोंकी निर्जरा होती है, यह कहना व्यवहारनयसे ही है, परमार्थसे नहीं।" ॥२५॥
दोहा-'कटका मैं कर्तार हूँ' यह द्विष्ठ सम्बन्ध ।
आप हि ध्याता ध्येय जहँ, कैसे भिन्न सम्बन्ध ॥२५॥ यहाँपर शिष्यका कहना है कि भगवन् ! यदि आत्मद्रव्य और कर्मद्रव्यका अध्यात्मयोगके बलसे बन्ध न होना बतलाया जाता है, तो फिर किस प्रकारसे उन दोनोंमें (आत्मा और कर्मरूप पुद्गल द्रव्योंमें) परस्पर एकके प्रदेशोंमें दूसरेके प्रदेशोंका मिल जाना रूप बंध होगा ? क्योंकि बन्धाभाव तो बंधपूर्वक ही होगा। और बंधका प्रतिपक्षी, सम्पूर्ण कर्मोकी विमुक्तावस्था रूप मोक्ष भी जोवको कैसे बन सकेगा ? जो कि अविच्छिन्न अविनाशी सुखका कारण होनेसे योगियोंके द्वारा प्रार्थनीय हुआ करता है ? आचार्य कहते हैं
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