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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् श्लोक "आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वतः । तपसा दुःष्कृतं घोरं भुजानोऽति न खिद्यते ।।३४॥ -समाधिशतकम् । एतच्च व्यवहारनयादुच्यते । कुत इत्याशङ्कायां पुनराचार्य एवाह-सा खल कर्मणो भवति तस्य संबन्धस्तदा कथमिति । वत्स आकर्णय खलु यस्मात्सा एकदेशेन विश्लेषलक्षणा निर्जरा कर्मणः चित्सामान्यानुविधायिपुद्गलपरिणामरूपस्य द्रव्यकर्मणः संबन्धिनी संभवति द्रव्ययोरेव संयोगपूर्वविभागसंभवात् । तस्य च द्रव्यकर्मणस्तदा योगिनः स्वरूपमात्रावस्थानकाले संबन्धः प्रत्यासत्तिरात्मना सह । कथं केन संयोगादिप्रकारेग संभवति ? सूक्ष्मेक्षिकया समीक्षस्व न कथमपि संभवतीत्यर्थः । यदा खल्वात्मैव ध्यानं ध्येयं च स्यात्तदा सर्वात्मनाप्यात्मनः परद्रव्याद व्यावत्य स्वरूपमात्रावस्थितत्वात्कथं द्रव्यान्तरेण संबन्धः स्यात्तस्य द्विष्ठत्वात् । न चैतत्संसारिणो न संभवतीति वाच्यं । संसारतीरप्राप्तस्य योगिनो मुक्तात्मवत् पञ्चहस्वस्वरोच्चारण कालं यावत्तथावस्थानसंभवात कर्मक्षपणामिमखस्य लक्षणोत्कृष्टशक्ललेम्यासंस्कारावेशवशात्तावन्मात्रकर्मपारतन्त्र्यव्यवहरणात् । तथा चोक्तं परमागमे "सीलेसि संपत्तो, णि रुद्धणिस्सेसआसवो जीवो। कम्मरयविप्पमुक्को, गयजोगी केवली होदि" ।।६५।। गोम्मटसारः जीवकांडः । श्रूयतां चास्यैवार्थस्य संग्रहश्लोकः ॥ २४ ॥ __ अर्थ-आत्मामें आत्माके चितवनरूप ध्यानसे परीषहादिकका अनुभव न होनेसे कर्मों के आगमनको रोकनेवाली कर्म-निर्जरा शोघ्र होती है। विशदार्थ-अध्यात्मयोगसे आत्मामें आत्माका ही ध्यान करनेसे कर्मोंकी निर्जरा ( एकदेशसे कर्मोका क्षय हो जाना, कर्मोंका सम्बंध छूट जाना ) हो जाती है। उसमें भी जो सिद्धयोगी हैं, उनके तो अशुभ तथा शुभ दोनों हो प्रकारोंके कर्मोंकी निर्जरा हो जाती है। और जो साध्ययोगी हैं, उनके असातावेदनीय आदि अशुभ कर्मोंकी निर्जरा होती है। कोरी निर्जरा होती हो सो बात नहीं है । अपि तु भूखा-प्यास आदि दुःखके भेदों ( परीषहों) की तथा देवादिकोंके द्वारा किये गये उपसर्गोंकी बाधाको अनुभवमें न लानेसे कर्मोंके आगमन ( आस्रव ) को रोक देनेवाली निर्जरा भी होती है। जैसा कि कहा भी है :-“यस्य पुण्यं च पापं च०" "जिसके पुण्य और पापकर्म, बिना फल दिये स्वयमेव ( अपने आप ) गल जाते हैं-खिर जाते हैं, वहो योगी है। उसको निर्वाण हो जाता है। उसके फिर नवीन कर्मोंका आगमन नहीं होता । इस श्लोक द्वारा पुण्य-पापरूप दोनों ही प्रकारके कर्मोंकी निर्जरा होना बतलाया है। और भी तत्त्वानुशासनमें कहा है-“तथा ह्यचरमांगस्य०" चरमशरीरीके ध्यानका फल कह देनेके बाद आचार्य अचरमशरीरीके ध्यानका फल बतलाते हुए कहते हैं कि जो सदा ही ध्यानका अभ्यास करनेवाला है, परन्तु जो अचरमशरीरी है, ( तद्भवमोक्षगामी नहीं है ) ऐसे ध्याताको सम्पूर्ण अशुभ कर्मोकी निर्जरा व संवर होता है । अर्थात् वह प्राचीन एवं नवीन समस्त अशुभ कर्मोका संवर तथा निर्जरा करता है। इस श्लोक द्वारा पापरूप कर्मोंकी ही निर्जरा व उनका संवर होना बतलाया गया है। और भी पूज्यपादस्वामीने समाधिशतकमें है-"आत्मदेहान्तरज्ञान०" "आत्मा व शरीरके विवेक ( भेद ) ज्ञानसे पैदा हुए आनन्दसे परिपूर्ण ( युक्त ) योगा, तपस्याके द्वारा भयंकर उपसर्गों व घोर परीषहोंको भोगते हुए भी खेद-खिन्न नहीं होते हैं। यह सब व्यवहारनयसे कहा जाता है कि बन्धवाले कर्मोकी निर्जरा होती है, परमार्थसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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