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________________ २२-२४] इष्टोपदेशः को अत्र दृष्टान्त इत्याह यदित्यादि । ददातीत्यत्रापि योज्यं 'तुरवधारणे । तेनायमर्थः संपद्यते। यद्येव यस्य स्वाधीनं विद्यते स सेव्यमानं तदेव ददातीत्येतद्वाक्यं लोके सुप्रतीतमतो भद्र ज्ञानिनमुपास्य समुल्लंभितस्वपरविवेकज्योतिरजस्रमात्मानमात्मनि सेव्यश्च । अत्राप्याह शिष्यः-ज्ञानिनोध्यात्मस्वस्थस्य किं भवतीति निष्पन्नयोग्यपेक्षया स्वात्मध्यानफलप्रश्नोऽयम् । गुरुराह-।। २३ ।। अर्थ-अज्ञान कहिये ज्ञानसे रहित शरीरादिककी सेवा अज्ञानको देती है, और ज्ञान पुरुषोंकी सेवा ज्ञानको देती है। यह बात प्रसिद्ध है, कि जिसके पास जो कुछ होता है, वह उसीको देता है, दूसरी चीज जो उसके पास है नहीं, वह दूसरेको कहाँसे देगा? विशदार्थ-अज्ञान शब्दके दो अर्थ हैं, एक तो ज्ञान रहित शरीरादिक और दूसरे मिथ्याज्ञान ( मोह-भ्रांति-संदेह ) वाले मूढ़-भ्रांत तथा संदिग्ध गुरु आदिक । सो इनकी उपासना या सेवा अज्ञान तथा मोह-भ्रम व संदेह लक्षणात्मक मिथ्याज्ञानको देतो है । और ज्ञानी कहिये, ज्ञानस्वभाव आत्मा तथा आत्मज्ञानसम्पन्न गुरुओंकी तत्परताके साथ सेवा, स्वार्थावबोधरूप ज्ञानको देती है । जैसा कि श्रीगुणभद्राचार्यने आत्मानुशासनमें कहा है-"ज्ञानमेव फलं ज्ञाने" ___ "ज्ञान होनेका फल, प्रशंसनीय एवं अविनाशी ज्ञानका होना ही है, यह निश्चयसे जानो। अहो ! यह मोहका ही माहात्म्य है, जो इसमें ज्ञानको छोड़ कुछ और ही फल ढूंढ़ा जाता है। ज्ञानात्मासे ज्ञानकी ही प्राप्ति होना न्याय है। इसलिये हे भद्र ! ज्ञानीकी उपासना करके प्रगट हुई है स्व-पर विवेकरूपी ज्योति जिसको ऐसा आत्मा, आत्माके द्वारा आत्मामें ही सेवन अनन्यशरण होकर भावना करनेके योग्य है।" ।। २३ ॥ दोहा-अज्ञभक्ति अज्ञानको, ज्ञानभक्ति दे ज्ञान । लोकोक्ती जो जो धरे, करे सो ताको दान ॥ २३ ॥ यहाँ फिर भी शिष्य कहता है कि अध्यात्मलीन ज्ञानीको क्या फल मिलता है ? इसमें स्वात्मनिष्ठ योगीकी अपेक्षासे स्वात्मध्यानका फल पूछा गया है। आचार्य कहते हैं परीषहाद्यविज्ञानादात्रवस्य निरोधिनी । जायतेऽध्यात्मयोगेन, कर्मणामाशु निर्जरा ॥ २४ ॥ अन्वय-अध्यात्मयोगेन परीषहाद्यविज्ञानात् आस्रवस्य निरोधिनी कर्मणां निर्जरा आशु जायते । टीका-जायते भवति । कासो, निर्जरा एकदेशेन संक्षयो विश्लेष इत्यर्थः। केषां, कर्मणां सिद्धयोग्यपेक्षयाऽशुभानां च शुभाना साध्ययोग्यपेक्षया त्वसद्वद्यादीनाम् । कथमाशु सद्यः। केन, अध्यात्मयोगेन अध्यात्मन्यात्मनः प्रणिधानेन, किं केवला, नेत्याह-निरोधिनी प्रतिषेधयुक्ता। कस्यास्रवस्यागमनस्य कर्मणामित्यत्रापि योज्यम् । कुत इत्याह, परीषहाणां क्षधादिदुःखभेदानामादिशब्दाद्देवादिकृतोपसर्गबाधानां चाविज्ञानादसंवेदनात । तथा चोक्तम्“यस्य पुण्यं च पापं च, निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं, न यस्य पुरास्रवः" ॥२४६॥ -आत्मानुशासनम् । "तथा ह्यचरमाङ्गस्य, ध्यानमभ्यस्यतः सदा । निर्जरा संवरश्चास्य सकलाशुभकर्मणाम् ।।२२५॥ -तत्त्वानुशासनम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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