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________________ प्रकाशकीय निवेदन (प्रथमावृत्ति) श्रीपूज्यपादस्वामी ( देवनन्दी) एक बहुत ही प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। इनके बनाये हुए १. जैनेन्द्रमहाव्याकरण, २. सर्वार्थसिद्धि-तत्त्वार्थसूत्रको सबसे प्राचीन महत्त्वपूर्ण टीका, ३. समाधिशतक या समाधितन्त्र; ४. इष्टोपदेश और ५. दशभक्ति, उपलब्ध ग्रन्थ हैं। १. शब्दावतारन्यास, २. जैनेन्द्रन्यास, ३. सारसंग्रह, ४. वैद्यकग्रन्थकी भी रचना इन्होंने की है, किन्तु वे वर्तमानमें अनुपलब्ध हैं। ___ इनका सबसे छोटा किन्तु महत्त्वपूर्ण सुन्दर ग्रन्थ इष्टोपदेश है। इसको यदि जैनोपनिषद् कहें तो भी अत्युक्ति नहीं होगी। इसमें मानव-कल्याणकारी तत्त्वोंका बड़ा सुन्दर हृदयग्राही वर्णन किया गया है । इसमें प्रतिपादित तत्त्वोंके प्रचार प्रसार एवं तदनुकुल उपयोग होनेपर जगती-तलका महान् कल्याण हो सकता है। इस ग्रन्थको पंडितप्रवर आशाधरजीकृत संस्कृतटीका, विद्वद्रत्न न्यायालंकार पं० बंशीधरजी सिद्धान्तशास्त्री (प्रधानाध्यापक सर सेठ हकमचन्द्र जैन विद्यालय इन्दौर) के सूपत्र जैनदर्शनाचार्य श्रीधन्यकुमारजी एम० ए० (हिन्दी-संस्कृत ) साहित्यरत्नकृत हिन्दीटीका, स्व. बैरिस्टर चम्पतरायजी विद्यावारिधिकृत अंग्रेजीटीका ( The Discourse Divine ) इन तीन टीकाओं तथा स्व० जैनधर्मभूषण ब्र. शीतलप्रसादजीकृत हिन्दी दोहानुवाद, अज्ञातकवि (श्री मोतीलाल हीराचन्द्रजी गांधी ) कृत मराठी पद्यानुवाद, श्री रावजीभाई देसाई श्रीमद्राजचन्द्राश्रम अगासकृत गुजराती-पद्यानुवाद, और श्रीजयभगवानजी बी० ए० एल एल० बी० एडवोकेट पानीपतकृत विस्तृत अंग्रेजी पद्यानुवाद Happy Sermons सहित प्रकाशित करानेका सौभाग्य प्राप्त हआ है। समाज पूज्यपाद आचार्यकी कृतिके साथ इन सात महान् विद्वानोंको कृतियोक दर्शन करेगी। अधिकसे अधिक लोग लाभ उठावें इसीलिए यह सब प्रयत्न किया गया है और मूल्य भी कम रक्खा है। इष्टोपदेश पहला ग्रन्थ है, जो इतनी टीकाओं और पद्यानुवादोंके साथ प्रकाशित हो रहा है। पूज्यपादस्वामोने इसे छठी शताब्दीमें रचा था । ७०० वर्ष बाद तेरहवीं शताब्दी में पंडितप्रवर आशाघरजीने संस्कृत-टोका ज विनयचन्द्रजीके आग्रहसे मालवाकी राजधानी नालछा-धारानगरी के श्रीनेमिनाथ मन्दिरमें बनाई । ब्र० शीतलप्रसादजीकी हिन्दीटीका सन १९२२ में प्रकाशित हई, जो अब अप्राप्य है। हिन्दो टीका प्रकाशित होनके ३ वर्षके बाद सन् १९२५ में स्व० बैरिस्टर चम्पतरायजीने ब्र० शीतलप्रसादजीके आग्रहसे अंग्रेजीमें टीका लिखी। पं०प्र० आशाधरजोको टीकाके ७०० वर्ष बाद बीसवीं शताब्दीमें जैनदर्शनाचार्य श्रीधन्यकुमारजी एम० ए० साहित्यरत्नने स्व० आचार्य सूर्यसागरजीके आग्रहसे मालवाकी राजधानी इन्दौर में नशियाँजीके श्रीपार्श्वनाथ जैनमन्दिरमें नई हिन्दीटीका लिखी। ___ इस अर्थप्रधान युगमें आपने निःस्वार्थ भावसे हमें यह टोका प्रकाशित करनेकी अनुमति प्रदान की, तदर्थ आपको क्या धन्यवाद दं? आप तो स्वयं धन्यकुमार ही है। पहिले यह हिन्दीटीका सेठ फकीरचन्द्रजो गोधा मन्दसोरकी ओरसे वो० नि० सं० २४७२ में वितरत हई थी। यह अध्यात्म-ग्रन्थ-संग्रह जिसमें छोटे-बड़े आठ ग्रन्थ थे, अन्तर्गत छपी थी। आपसे (हिन्दी-टीकाकारसे) हमें बड़ी आशाएँ हैं। आपकी कृपा हई तो कोई अन्य उपयोगी ग्रन्थ समाधिशतक वगैरह सम्पादित कराकर इसी पद्धतिसे प्रकाशित करायेंगे। संस्कृतटीकाको हस्तलिखित प्रतियोंके प्राप्त करनेका बहत प्रयत्न किया, पर मिली नहीं। इसकी संस्कृतटीका माणिकचन्द जैनग्रन्थमालाके १३ वें ग्रन्थ तत्त्वानुशासनादिसंग्रहमें छपी प्रतिपरसे छपाई गई है। अतएव ग्रन्थमालाके मंत्रीजोके बड़े आभारी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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