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________________ ११] इष्टोपदेशः १३ नेत्रस्यापकर्षणत्वाभिमुखानयनम् तेन अत्रोपमानतो मन्थदण्ड आक्षेप्यस्तेन यथा नेत्राकर्षणव्यापारे मन्याचल: समुद्रे सुचिरं भ्रान्तो लोके प्रसिद्धस्तथा स्वपरविवेक कानवबोधाद यद्दभतेन रागादिपरिणामेन कारणकार्योपचारात्तज्जनितकर्मबन्धेन संसारस्थो जीवोऽनादिकालं संसारे भ्रान्तो भ्रमति भ्रमिष्यति । भ्रमतीत्यवतिष्ठन्ते पर्वता इत्यादिवत् नित्यप्रवृत्ते लटा विधानात् । उक्तं चजो खलु संसारत्यो, जीवो ततो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म, कम्मादो हवदि गदि सु गदी ॥१२८॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं, तत्तो रागो व दोसो वा ।।१२९ ।। जायदि जीवस्सेवं, भावो संसारचक्कवालंमि । इदि जिणवरेहि भणिदो, अणादिणिधणो सणिधणो वा ।।१३०।। पंचास्तिकाय, (२) अथ प्रतिपाद्यः पर्यनयुङ्क्ते-तस्मिन्नपि यदि सुखी स्यात् को दोष इति भगवन् संसारेऽपि, न केवलं मोक्ष इत्यपिशब्दार्थः । चेज्जीवः सुखयुक्तो भवेत् तहिं को न कश्चिद् दोषो दुष्टत्वं संसारस्य सर्वेषां सुखस्यैव आप्तुमिष्टत्वात. येन संसारच्छेदाय सन्तो यतेरन्नित्यवाह-वत्स ! ___ अर्थ-यह जीव अज्ञानसे रागद्वेषरूपी दो लम्बी डोरियोंकी खींचातानीसे संसाररूपो समुद्र में बहुत कालतक घूमता रहता है-परिवर्तन करता रहता है। विशदार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पंचपरावर्तनरूप संसार, जिसे दुःखका कारण और दुस्तर होनेसे समुद्रके समान कहा गया है, उसमें अज्ञानसे-शरीरादिकोंमें आत्मभ्रांतिसे अतिदीर्घ कालतक घूमता ( चक्कर काटता ) रहता है । इष्ट वस्तुमें प्रीति होनेको राग और अनिष्ट वस्तुमें अप्रीति होनेको द्वेष कहते हैं। उनकी शक्ति और व्यक्तिरूपसे हमेशा प्रवृत्ति होती रहती है, इसलिये आचार्योंने इन दोनोंकी जोड़ी बतलाई है। बाकोके दोष इस जोड़ीमें ही शामिल हैं, जैसा कि कहा गया है :-“यत्र रागः पदं धत्ते०" । “जहाँ राग अपना पाँव जमाता है, वहाँ द्वेष अवश्य होता है या हो जाता है, यह निश्चय है । इन दोनों ( राग-द्वेष ) के आलम्बनसे मन अधिक चंचल हो उठता है। और जितने दोष हैं, वे सब राग-द्वेषसे संबद्ध हैं," जैसा कि कहा गया है-"आत्मनि सति परसंज्ञा०" "निजत्वके होनेपर परका ख्याल हो जाता है और जहाँ निज-परका विभाग ( भेद ) हुआ, वहाँ निजमें रागरूप और परमें द्वेषरूप भाव हो ही जाते हैं। बस इन दोनोंके होनेसे अन्य समस्त दोष भी पैदा होने लग जाते हैं । कारण कि वे सब इन दोनोंके ही आश्रित हैं।" _वह राग-द्वेषकी जोड़ी तो हुई मंथानीके डंडेको धुमानेवाली रस्सीके फाँसाके समान और उसका घुमना कहलाया जीवका रागादिरूप परिणमन । सो जैसे लोकमें यह बात प्रसिद्ध है कि नेतरीके खींचा-तानीसे जैसे मंथराचल पर्वतको समुद्रमें बहुत कालतक भ्रमण करना पड़ा, उसी तरह स्वपर विवेकज्ञान न होनेसे रागादि परिणामोंके द्वारा जीवात्मा अथवा कारणमें कार्यका उपचार करनेसे, रागादि परिणामजनित कर्मबंधके द्वारा बँधा हुआ संसारी जीव, अनादिकालसे संसारमें घूम रहा है, घूमा था और घूमता रहेगा। मतलब यह है कि रागादि परिणामरूप भावकर्मोंसे द्रव्यकर्मोंका बन्ध होता है। ऐसा हमेशासे चला आ रहा है और हमेशा तक चलता रहेगा। सम्भव है कि किसी जीवके यह रुक भी जाय । जैसा कि कहा गया है :-"जो खलु संसारत्थो०" १ वर्तमानात् । २ शिष्यः पृच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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