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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ श्लोक
टीका - वत्स अस्ति । किं तत्, सौख्यं शर्म । केषां नाकौकसां देवानां न पुनः स्वर्गेऽपि जाताना - मेकेन्द्रियाणाम् । वव वसतां नाके स्वर्गे । न पुनः क्रीडादिवशाद्रमणीयपर्वतादौ । किमतीन्द्रियं तत्, नेत्याहहृषीकजं हृषीकेभ्यः समीहितानन्तरमुपस्थितं निजं निजं विषयमनुभवद्भ्यः स्पर्शनादीन्द्रियेभ्यः सर्वाङ्गीणा'ह्नदनाकारतया प्रादुर्भूतं । तथा राज्यादिसुखवत् सातङ्कं भविष्यतीत्याशङ्कापनोदार्थमाह- अनातङ्कं न विद्यते आतंकः प्रतिपक्षादिकृतश्चित्तक्षोभो यत्र । तथापि भोगभूमिजसुखवदल्पकालभोग्यं भविष्यतीत्याशंकायामाह - दीर्घकालोपलालितं दीर्घकालं सागरोपममपरिच्छिन्नकालं यावदुपलायितमाज्ञा विधेय 'देवदेवी स्वविलासिनीभिः क्रियमाणोपचारत्वादुत्कर्षं प्रापितम् । तहि क्व केषामिव तदित्याह -- नाके नाकौकसामिव स्वर्गे देवानां यथा, अनन्योपममित्यर्थः ॥ ५ ॥
अत्र शिष्यः प्रत्यवतिष्ठते - यदि स्वर्गेऽपि सुखमुत्कृष्टं किमपवर्गप्रार्थनयेति । भगवन् यदि स्वर्गेऽपि न केवलमपवर्गे सुखमस्ति । कीदृशम् ? उत्कृष्टं मर्त्यादिसुखातिशायि तहि किं कार्यं कया, अपवर्गस्य मोक्षस्य प्रार्थनया अपवर्गो मे भूयादित्यभिलाषेण एवं च संसारसुखे एवं निर्बन्त्र" कुर्वन्तं प्रबोध्यं तत्सुखदुःखस्य भ्रान्तत्वप्रकाशनाय आचार्यः प्रबोधयति -
अर्थ – स्वर्ग में निवास करनेवाले जीवोंको स्वर्ग में वैसा ही सुख होता है, जैसा कि स्वर्गमें रहनेवालों (देवों ) को हुआ करता है, अर्थात् स्वर्ग में रहनेवाले देवोंका ऐसा अनुपमेय ( उपमा हित ) सुख हुआ करता है कि उस सरोखा अन्य सुख बतलाना कठिन ही है । वह सुख इन्द्रियोंसे पैदा होनेवाला आतंकसे रहित और दीर्घ कालतक बना रहनेवाला होता है ।
विशदार्थ - हे बालक ! स्वर्ग में निवास करनेवालोंको, न कि स्वर्ग में पैदा होनेवाले एकेन्द्रियादि जीवोंको । स्वर्गमें, न कि क्रीड़ादिकके वशसे रमणीक पर्वतादिकमें ऐसा सुख होता है, जो चाहनेके अनन्तर ही अपने विषयको अनुभव करनेवाली स्पर्शनादिक इन्द्रियोंसे सर्वांगीण हर्ष के रूप में उत्पन्न हो जाता है, तथा जो आतंक ( शत्रु आदिकोंके द्वारा किये गये चित्तक्षोभ ) से भी रहित होता है, अर्थात् वह सुख राज्यादिकके सुखके समान आतंकसहित नहीं होता है । वह सुख भोगभूमि में उत्पन्न हुए सुखकी तरह थोड़े कालपर्यन्त भोगने में आनेवाला भी नहीं है । वह तो उल्टा, सागरोपम कालतक, आज्ञा में रहनेवाले देव-देवियोंके द्वारा की गई सेवाओं से समय समय पर बढ़ा चढ़ा ही पाया जाता है ।
'स्वर्ग में निवास करनेवाले प्राणियों का ( देवोंका ) सुख स्वर्गवासी देवोंके समान ही हुआ करता है।' इस प्रकारसे कहने या वर्णन करनेका प्रयोजन यही है कि वह सुख अनन्योपम है । अर्थात् उसकी उपमा किसी दूसरेको नहीं दी जा सकती है । लोकमें भी जब किसी चीजकी अति हो जाती है, तो उसके द्योतन करनेके लिए ऐसा ही कथन किया जाता है, जैसे "भैया ! राम रावणका युद्ध तो राम रावण के युद्ध समान ही था । रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव ।”
अर्थात् इस पंक्ति युद्ध सम्बन्धी भयंकरताकी पराकाष्ठाको जैसा द्योतित किया गया है, ऐसा ही सुखके विषय में समझना चाहिये ॥ ५ ॥
दोहा - इन्द्रियजन्य निरोगमय, दीर्घकाल तक भोग्य । स्वर्गवास देवानिको सुख उनहीके योग्य ॥ ५ ॥ शंका- इस समाधानको सुन शिष्यको पुनः शंका हुई और वह कहने लगा- "भगवन् ! १. सर्वमङ्गं व्याप्नोति । २. आदेशवशवर्ति । ३. सेवा । ४. पूर्वपक्षं करोति । ५. हठम् । ६. शिष्यम् ।
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