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________________ ४-५ ] इष्टोपदेशः वर्तते ? निकट एव तिष्ठतीत्यर्थः, स्वात्मध्यानोपात्तपण्यस्य तदेकफलत्वात् । तथा चोक्तम् "गुरूपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितः । अनन्तशक्तिरात्मायं भुक्ति मुक्ति च यच्छति ।। १९६ ।। ध्यातोऽहसिद्धरूपेण चरमाङ्गस्य मुक्तये । तद् यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यस्य भुक्तये ॥ १९७ ॥ ( तत्त्वानुशासन ) अमुमेवार्थ दृष्टान्तेन स्पष्टयन्नाह-य इत्यादि । यो वाहीको नयति, प्रापयति । किं, स्ववाह्यं भारं कां, गव्यूति क्रोशयुगं । कथम्, आशु शीघ्रं । स कि क्रोशाघे स्वभारं' नयन् सीदति खिद्यते ? न खिद्यत इत्यर्थः, महाशक्तावल्पशक्तेः सुघटत्वात् ।। ४ ॥ अथैवमात्मभक्तेः स्वर्गगतिसाधनत्वेऽपि समर्थिते प्रतिपाद्यस्तत्फलजिज्ञासया गुरुं पृच्छति-स्वर्गे गतानां किं फल मिति ? स्पष्टं गुरुत्तरयति ___ अर्थ-आत्मामें लगा हुआ जो परिणाम भव्य प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करता है, उस मोक्ष देने में समर्थ आत्मपरिणामके लिये स्वर्ग कितना दूर है ? न कुछ । वह तो उसके निकट हो समझो । अर्थात स्वर्ग तो स्वात्मध्यानसे पैदा किये पुण्यका एक फलमात्र है। ऐसा ही कथन अन्य ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है । तत्त्वानुशासनमें कहा है-"गुरूपदेशमासाद्य." "गुरुके उपदेशको प्राप्त कर सावधान हुए प्राणियों के द्वारा चिन्तवन किया गया यह अनन्त शक्तिवाला आत्मा चितवन करनेवालेको भुक्ति और मुक्ति प्रदान करता है। इस आत्माको अरहंत और सिद्धके रूपमें चितवन किया जाय तो यह चरमशरीरीको मुक्ति प्रदान करता है और यदि चरमशरीरी न हो तो उसे वह आत्म-ध्यानसे उपार्जित पुण्यकी सहायतासे भुक्ति (स्वर्ग चक्रवर्त्यादिके भोगों) को प्रदान करनेवाला होता है।" श्लोककी नीचेकी पंक्तिमें उपरिलिखित भावको दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं देखो जो भारको ढोनेवाला अपने भारको दो कोसतक आसानी और शीघ्रताके साथ ले जा सकता है, तो क्या वह अपने भारको आधा कोस ले जाते हुए खिन्न होगा ? नहीं । भारको ले जाते हुए खिन्न न होगा। बड़ी शक्तिके रहने या पाये जानेपर अल्प शक्तिका पाया जाना तो सहज ( स्वाभाविक ) ही है ॥ ४ ॥ दोहा-आत्मभाव यदि मोक्षप्रद, स्वर्ग है कितनी दूर। दोय कोस जो ले चले, आध कोस सुख पूर ॥ ४ ॥ इस प्रकार आत्म-भक्तिको जब कि स्वर्ग-सुखोंका कारण बतला दिया गया, तब शिष्य पुनः कुतूहलकी निवृत्तिके लिये पूछता है कि "स्वर्गमें जानेवालोंको क्या फल मिलता है ?" आचार्य इसका स्पष्ट रीतिसे उत्तर देते हुए लिखते हैं हृषीकजमनातङ्क दीर्घकालोपलालितम् । नाके नाकौकसां सौख्यं, नाके नाकौकसामिव ॥ ५॥ अन्वय-नाके नाकौकसां हृषीकजं अनातङ्क दीर्घकालोपलालितं सौख्यं नाके नाकौकसामिव ( भवति )। १. वाह्यं । २. शिष्यः । ३. ज्ञातुमिच्छया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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