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________________ २-३ ] इष्टोपदेशः शङ्कितं व्रतादीनामानर्थक्यं तन्न भवति । तेषामपूर्वशुभकर्मनिरोधेनोपार्जिताशुभकर्मकदेशक्षपणेन च सफलत्वात्तद्विषयरागलक्षणशुभोपयोगजनितपुण्यस्य च स्वर्गादिपदप्राप्तिनिमित्तत्वादेव च व्यक्तीकर्तुं वक्ति अर्थ-योग्य उपादान कारणके संयोगसे जैसे पाषाणविशेष स्वर्ण बन जाता है, वैसे ही सुद्रव्य सुक्षेत्र आदि रूप सामग्रीके मिलनेपर जीव भी चैतन्यस्वरूप आत्मा हो जाता है। विशदार्थ-योग्य ( कार्योत्पादनसमर्थ ) उपादान कारणके मिलनेसे पाषाणविशेष, जिसमें सुवर्णरूप परिणमन ( होने ) की योग्यता पाई जाती है, वह जैसे स्वर्ण बन जाता है, वैसे ही अच्छे (प्रकृत कार्यके लिए उपयोगी) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको सम्पूर्णता होनेपर जोव ( संसारी आत्मा ) निश्चल चैतन्यस्वरूप हो जाता है। दूसरे शब्दोंमें, संसारी प्राणी जोवात्मासे परमात्मा बन जाता है ।। २॥ दोहा-स्वर्ण पाषाण सुहेतु से, स्वयं कनक हो जाय । सुद्रव्यादि चारों मिलें, आप शुद्धता थाय ॥२॥ शंका-इस कथनको सुन शिष्य बोला कि भगवन् ! यदि अच्छे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्रोके मिलनेसे ही आत्मा स्व स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, तब फिर व्रत समिति आदिका पालन करना निष्फल ( निरर्थक ) हो जायगा। व्रतोंका परिपालन कर व्यर्थमें ही शरीरको कष्ट देनेसे क्या लाभ? समाधान-आचार्य उत्तर देते हुए बोले-हे वत्स ! जो तुमने यह शंका की है कि व्रतादिकोंका परिपालन निरर्थक हो जायगा, सो बात नहीं है, कारण कि वे व्रतादिक नवीन शुभ कर्मोके बंधके कारण होनेसे तथा पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों के एकदेश क्षयके कारण होनेसे सफल एवं सार्थक हैं। इतना ही नहीं, किन्तु व्रतसम्बन्धी अनुरागलक्षणरूप शुभोपयोग होनेसे पुण्यकी उत्पत्ति होती है। और वह पुण्य स्वर्गादिक पदोंकी प्राप्तिके लिए निमित्त कारण होता है। इसलिये भी व्रतादिकोंका आचरण सार्थक है। इसी बातको प्रगट करनेके लिए आचार्य आगेका श्लोक कहते हैं वरं व्रतैः पदं दैवं, नाव्रतैर्बत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः, प्रतिपालयतोर्महान् ॥ ३ ॥ अन्वय-व्रतैः दैवं पदं वरम्, बत अव्रतैः नारकं पदं न वरम् प्रतिपालयतोः छायातपस्थयो. महान् भेदः ( अस्ति)। टीका-वरं भवतु । किं तत् ? पदं स्थानम् । किविशिष्ट, दैवं देवानामिदं देवं स्वर्गः। कैर्हेतुभितैव्रतादिविषयरागजनितपुण्यः ,तेषां स्वर्गादिपदाभ्युदयनिबन्धनत्वेन सकलजनसुप्रसिद्धत्वात् । तॉवतान्यपि तथाविधानि भविष्यन्तीत्याशक्याह-नेत्यादि । न वरं भवति । किं तत ? पदं । किविशिष्टं, नारकं नरकसंबन्धि । कैः, अवतैः हिंसादिपरिणाम जनितपातकैः । बतेति खेदे कष्टे वा । तहि व्रताव्रतनिमित्तयोरपि देवनारकपक्षयोः साम्यं भविष्यतीत्याशङ्कायां तयोर्महदन्तरमिति दृष्टान्तेन प्रकटयन्नाह-छायेत्यादि । भवति । कोऽसौ ? भेदः अन्तरं । किविशिष्टो, महान् बृहन् । कयोः पथिकयोः । किं कुर्वतोः, स्वकार्यवशान्नगरान्तर्गतं तृतीयं स्वसाथिकमागच्छन्तं पथि प्रतिपालयतोः प्रतीक्षमाणयोः । किविशिष्टयोः सतोश्छायातपस्थयोः । छाया च आतपश्च छायातपौ तयोः स्थितयोः । अयमर्थः-यथैव छायास्थितस्तृतीयागमनकालं यावत्सुखेन तिष्ठति आतपस्थितश्च दुःखेन तिष्ठति, तथा येन व्रतादि कृतानि स आत्मा जीवः सुद्रव्यादयो मक्तिहेतवो यावत्संपद्यन्ते तावत्स्वर्गादिपदेष सुखेन तिष्ठति अन्यश्च नरकादिपदेषु दुःखेनेति ।। ३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001477
Book TitleIshtopadesha
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorShitalprasad, Champat Rai Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1986
Total Pages124
LanguagePrakrit, Sanskrit, Marathi, Gujarati, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Principle
File Size9 MB
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